रविवार, 26 अप्रैल 2009

इस सादगी को नमन

डॉ.श्रीमती अजित गुप्ता के ब्लॉग . पर मैं एक लघुकथा ' आदत ' पढ़ रहा था जिसमें उनका घरेलू नौकर,जो जनजातीय समाज का है, आग्रह करने पर भी उनके घर में दिन में खाना नहीं खाता और उत्तर देता है - हम लोग दो समय ही खाना खाते हैं, एक सुबह और एक शाम। सुबह मैं खाना खाकर आता हूँ और शाम को जाकर खाऊँगा। यदि दिन में आपके यहाँ खाना खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी।

आज की इस जोड़ तोड़ और छल फरेब वाली दुनिया में भोले और निश्छल लोग भी हैं- यह तथ्य मन को सकून देता है. डॉ. श्रीमती गुप्ता ने इसे लघुकथा के अंतर्गत दिया है, अतः यह एक काल्पनिक कथा भी हो सकती है. मैं यहाँ एक सत्य घटना दे रहा हूँ जो जनजातीय समाज के भोलेपन का नमूना प्रर्दशित करती है और निश्छलता और ईमानदारी के प्रति आस्था जगाती है . घटना इस प्रकार है -

घटना सन ९२ - ९३ की है। मेरे भांजे की शादी कोंडागांव (बस्तर - छत्तीसगढ़) में संपन्न हुई। रिसेप्शन में कुछ आदिवासी मजदूरों को भोजन व्यवस्था में मदद हेतु काम पर बुलाया गया था. यह तय हुआ था कि लगभग रात साढ़े दस बजे आयोजन समाप्त हो जायेगा. तय कार्यक्रम के अनुसार साढ़े दस बजे तक आयोजन समाप्त न होने पर वे लोग शिकायत करने लगे. हमारे समझाने पर उन्होंने अपने डेरे तक रात में पंहुचने की दिक्कत बताई. हमने उन्हें जीप से पहुंचाने का वादा किया. समस्या के इस समाधान से वे संतुष्ट हो गए. लेकिन दूसरी जो समस्या उन्होंने बताई उससे हम आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंने बोला कि घर जाकर उन्हें अपने लिए खाना भी बनाना है.हम सोच भी नहीं सकते थे कि वे दावत के इस आयोजन में बिना खाना खाए चले जायेंगे, जबकि वे मान कर चल रहे थे कि उन्होंने खाना तो घर जाकर ही खाना है. यह उनके सीधेपन का नमूना था. खैर उन्हें समझाया गया कि वे सब यहीं खाना खायेंगे और यदि कोई घर में अन्य भी हो तो उसके लिए ले के जायेंगे। इस प्रस्ताव पर वे बड़े संकोच से राजी हुए।



आगे इससे भी बड़े आश्चर्य की बारी थी। जब काम समाप्त होने पर उन्हें भुगतान किया गया तो सोचा गया कि इन्हें पहले से तय राशि से पाँच पाँच रूपये ज्यादा दे दिए जाएँ। यह प्रस्ताव उन्हें बहुत नागवार गुजरा और वे मानने लगे कि उनके साथ बेईमानी हो रही है। जब वे किसी तरह नहीं माने तो उन्हें पहले तय राशि के हिसाब से भुगतान किया। उसके बाद पाँच पाँच रूपये अलग से दे कर समझाया गया कि अच्छे काम के लिए उन्हें ईनाम दिया जा रहा है। इसे भी उन्होंने ससंकोच ग्रहण किया अब इसे आप उनकी बेवकूफी कह लीजिये या भोलापन, मैं तो उनकी सादगी और सच्चाई से प्रभावित हुए बिना न रह सका वह घटना मुझे डॉ.अजित गुप्ता की लघुकथा पढ़ते हुए अचानक याद आ गयी और आपके सामने प्रस्तुत कर दी