रविवार, 6 जून 2010

हैं वो काफिर जो....(ब्लॉगजगत को सीख)

बहुत पहले एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया था। बाद में वही किस्सा 'नवनीत' में पात्रों के नाम के साथ पढ़ा था। तब ज्ञात हुआ कि वह किस्सा नहीं वरन सत्य घटना थी। इस घटना से ब्लॉगजगत को भी सीख लेनी चाहिए। लेखकों , कवियों की आपसी नोंक झोंक को किस शालीनता से निभाया जा सकता है, यह घटना इस बात का उदाहरण है।'नवनीत' में सम्बंधित शायर और कवि का नाम भी दिया था, जो मुझे अब याद नहीं। वैसे हमारे बहुत से ब्लोगर मित्रों ने यह घटना अवश्य सुनी होगी । विवरण इस प्रकार है :-

एक गोष्ठी में शायर और कवियों के बीच समस्या पूर्ति का कार्यक्रम चल रहा था। अर्थात कोई एक शायर या कवि शायरी या कविता की एक पंक्ति बोलता और बाकी लोग उस पंक्ति की अगली पंक्ति बोलते। वहाँ उपस्थित एक मुसलमान शायर ने एक पंक्ति पढी :

हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस्लाम के

पंक्ति पढने के बाद शायर महोदय शारारत भरी नजरों से साथी हिन्दू शायर की तरफ देखने लगे। हिन्दू शायर महोदय तो मानो इस पंक्ति के रस में डूब गए थे।मुसलमान शायर की इस पंक्ति पर जबर्दस्त वाहवाही देने के बाद हिन्दूशायर ने समस्या पूर्ति इस प्रकार की :

'लाम' के मानिंद हैं काकुल मेरे घनश्याम के
हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस 'लाम' के
(
मेरे घनश्याम के केश 'लाम' की तरह घुंघराले हैं. जो इन
घुंघराले बालों वाले के दास नहीं वे काफिर हैं। )

ज्ञातव्य
हो
कि र्दू के वर्ण 'लाम' की आकृति गर्दन की तरफ जाने वाले घुंघराले बालों की तरह होती है