सोमवार, 19 जुलाई 2010

गाली या आशीष ?

'तुम्हारा   एक  भी  दांत  न  बचे ताकि  तुम भात  भी पीस कर खाओ, तुम इतने अशक्त हो जाओ कि शौच जाने के लिये भी लाठी का सहारा लेना पड़े'- यह वाक्य किसी व्यक्ति के लिए गाली की तरह ही प्रयुक्त  किया जा सकता है. किन्तु कूर्मांचल के त्यौहार 'हरेला' में कुछ इसी तरह के वाक्यों से आशीष दी जाती है.  कूर्मांचल में हरेला त्यौहार का  महत्व इस तथ्य से भी पता लगता है कि  इस दिन उत्तराखंड  में शासकीय अवकाश  रहता है.१७ जुलाई संक्रांत को हरेला था.साल भर में तीन हरेला  पर्व होते हैं . इस त्यौहार  में विभिन्न अनाजों को एक डलिया में  ठीक उसी तरह बोया जाता है जैसे कई स्थानों में नवरात्र पर जवारे बोये जाते हैं. पर्व के दिन उन अनाजों के उगे पौधों को काट कर तिलक लगाने के बाद सर पर रखा जाता है. सर पर रखने की एक विशेष पद्धति होती है. पहले पैर. फिर घुटने , फिर कंधे को छुआते  हुए अंत में सर पर  रखे जाते हैं.त्यौहार की विस्तृत जानकारी के लिये लेख के अंत में , मैं लिंक दे रहा हूँ. यहाँ तो मैं सिर्फ हरेले के टीके के बाद दी जाने वाली आशीष का जिक्र करना चाहता हूँ.

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।
 
{जीते रहो,पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश की तरह प्रशस्त( उदार) बनो,सूर्य के समान तेज, सियार के समान बुद्धि हो,दूब की तरह पनपो, इतने दीर्घायु हो कि ( दांतों से रहित )तुम्हें  भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच (जंगल) जाने के लिये भी लाठी का सहारा लेना पड़े.}

देखिये  कैसे एक गाली सी लगने वाला वाक्य आशीष और शुभकामना में बदल गया.  गाली को  यह सौभाग्य पर्व के कारण मिल गया. धन्य हैं हमारे ऐसे पर्व जो गाली को भी आशीष  में बदल देते हैं. 

हरेला त्यौहार के लिंक -