सोमवार, 28 जून 2010

ब्लॉगजगत में सार्थक भी हो रहा है

ब्लॉगजगत में उठापटक, वाद विवाद, टांग खिंचाई और आरोप प्रत्यारोप तो चलते ही रहते हैं,लेकिन कहीं कुछ बहुत सार्थक भी घटता रहता है, जो भविष्य में ब्लॉग विधा की सार्थकता सिद्ध करने वाला है.ऐसा ही एक प्रयास किया है विवेकानंद पाण्डेय ने अपने ब्लॉग देशभक्त में| इस ब्लॉग के माध्यम से वे संस्कृत भाषा का प्रशिक्षण देने का प्रयास कर रहे हैं.ऐसे प्रयासों की सराहना की जाना चाहिए और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.

शनिवार, 19 जून 2010

मुआवजे से ज्यादा जरूरी दंड.

एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी राजनीति और मुआवजे के चक्रव्यूह में फंसती नजर आ रही है। भाजपा जहां इस त्रासदी के फैसले को मुद्दा बनानेपर तुली है वहीं कांग्रेस योजना आयोग द्वारा गैस पीड़ितों के लिये आनन फानन में दिए गए ९८२ करोड़ रुपये की मदद कोअपने प्रयासों का फल बता रही है। ज्ञातव्य है कि इससे पहले मध्य प्रदेश ने आयोग से ९०० करोड़ की मदद माँगी थी, लेकिन आयोग नेध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि गैस पीड़ितों के लिये काम करने वाले संगठनों ने भाजपा द्वाराप्रायोजित धरने का विरोध कर यह जताने की कोशिश की कि वे इस राजनीतिक नौटंकी को समझ रहे हैं,किन्तु डर है कि वेभी मुआवजे के भ्रमजाल में फंस कर मुख्य मुद्दे को भूल न जाएँ । गैस त्रासदी के तुरंत बाद भी मुआवजा मुख्य मुद्दा होगया था । स्वयं सेवी संगठनों सहित राजनीतिक पार्टियां और स्वयं पीड़ित भी थोड़ा बहुत मुआवजे के चक्कर में दोषियों को दण्डित करने के मुख्य मुद्दे को भूल गए थे।

निस्संदेह पीड़ितों को दिया गया मुआवजा त्रासदी को देखते हुए बहुत ही कम था,लेकिन यह भी सच है कि मुआवजे की राशि भी भ्रष्टाचार के भंवर में बुरी तरह फंसी। पूरी संभावना है कि भविष्य में भी यह होगा। भोपाल के कुछ विधायक और नेता जिनके वोटर गैस प्रभावित क्षेत्र की परिधि के बाहर हैं, उनको भी मुआवजा दिलाने के लिये प्रयत्नशील हैं.अंधा बांटे रेवड़ी.....

बहरहाल जो भी पीड़ित है उसे मुआवजे की बढ़ी हुई राशि अवश्य मिलनी चाहिए। मेरा अनुमान है कि राज्य और केंद्र सरकारों के अपने अपने गणित (मुआवजे दिलाने का श्रेय)के अनुसार यह काम होगा भी। लेकिन मुआवजे की इस राजनीति में दोषियों को दण्डित करने का काम पिछड़ जाएअब दोषी तत्कालीन सत्तासीन राजनेता और अधिकारी हैं,जिन्होंने तब पीड़ितों का नहीं वरन आरोपियों का पक्ष ले कर आपराधिक कृत्य किया था.


रविवार, 13 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी - अब क्या करें?

भोपाल गैस त्रासदी के बारे में हम वह सब कुछ जान रहे हैं, जो हमारी जानकारी के स्रोत (मीडिया) हमें बता रहे हैंस्पष्ट हो चुका है कि प्रकरण को हल्का करने, हाथ आये आरोपी एंडरसन को देश से बाहर भगाने और हत्यारे यूनियनकार्बाइड को राहत पहुंचाने की कोशिश तत्कालीन सत्तासीन नेताओं एवं अधिकारियों ने कीगैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन और स्वयं पीड़ितों के लिये भी उस समय आरोपियों को सजा दिलाने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य मुआवजा प्राप्त करना था२६ साल बाद आये फैसले से पीड़ितों सहित सभी स्तब्ध और क्षुब्ध हैं, ठगे से हैं। लेकिन लाचार हैं। ईश्वर भी या तो 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति....' का वादा भूल गए हैं या इससे भी बड़ी 'धर्म की हानि 'की प्रतीक्षा कर रहे हैं।तो अब मनुष्य क्या करे ? मेरे मतानुसार अब यह किया जा सकता है:-


१- गैस त्रासदी के समय संबंधित जिम्मेदार अधिकारियों, सत्तासीन नेताओं के विरुद्ध विशेष अदालत में प्रकरण चला कर उनकी गैर जिम्मेदाराना हरकत के लिये दण्डित किया जाय और इस गैर जिम्मेदारी की सजा मृत्युदंड ( यदि क़ानून में व्यवस्था न हो तो क़ानून में संशोधन किया जाए ) तक हो।

२- वे सारे उत्पाद जिनसे यूनियन कार्बाइड का सम्बन्ध हो (जैसे एवेरेडी सेल)भारत में प्रतिबंधित हों। भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे ऐसा करेंगे , क्योंकि वे आसानी से खरीदे जा सकते हैं। इसलिए स्वयंसेवी संगठन लोगों को कार्बाइड के उत्पादों की सूची उपलब्ध करायें और उन्हें प्रेरित करें कि वे इन उत्पादों को न खरीदें। (यह कार्य त्रासदी के तुरंत बाद ही किया जाना चाहिए था)

उपरोक्त कदमों के लिये सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए इस हेतु दबाव डालने का काम भी स्वयंसेवी संगठन ही कर सकते हैं।

एक बात और गौर करने लायक है। इस प्रकार का फैसला किसी धार्मिक घटना को लेकर आया होता तो अब तक बवाल मच गया होता (याद कीजिये शाहबानो प्रकरण)। लेकिन इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि यदि इस फैसले सरीखे प्रकरण बार बार होते रहे तो जनता फैसला अपने हाथ में लेना शुरू कर सकती है और एक दूसरे प्रकार का नक्सलवाद पनप सकता है, जो प्रारम्भ में तो कसूरवार के प्रति होता है लेकिन बाद में बेकसूर भी उसके निशाने पर आते हैं और अराजकता बढ़ती है।








रविवार, 6 जून 2010

हैं वो काफिर जो....(ब्लॉगजगत को सीख)

बहुत पहले एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया था। बाद में वही किस्सा 'नवनीत' में पात्रों के नाम के साथ पढ़ा था। तब ज्ञात हुआ कि वह किस्सा नहीं वरन सत्य घटना थी। इस घटना से ब्लॉगजगत को भी सीख लेनी चाहिए। लेखकों , कवियों की आपसी नोंक झोंक को किस शालीनता से निभाया जा सकता है, यह घटना इस बात का उदाहरण है।'नवनीत' में सम्बंधित शायर और कवि का नाम भी दिया था, जो मुझे अब याद नहीं। वैसे हमारे बहुत से ब्लोगर मित्रों ने यह घटना अवश्य सुनी होगी । विवरण इस प्रकार है :-

एक गोष्ठी में शायर और कवियों के बीच समस्या पूर्ति का कार्यक्रम चल रहा था। अर्थात कोई एक शायर या कवि शायरी या कविता की एक पंक्ति बोलता और बाकी लोग उस पंक्ति की अगली पंक्ति बोलते। वहाँ उपस्थित एक मुसलमान शायर ने एक पंक्ति पढी :

हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस्लाम के

पंक्ति पढने के बाद शायर महोदय शारारत भरी नजरों से साथी हिन्दू शायर की तरफ देखने लगे। हिन्दू शायर महोदय तो मानो इस पंक्ति के रस में डूब गए थे।मुसलमान शायर की इस पंक्ति पर जबर्दस्त वाहवाही देने के बाद हिन्दूशायर ने समस्या पूर्ति इस प्रकार की :

'लाम' के मानिंद हैं काकुल मेरे घनश्याम के
हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस 'लाम' के
(
मेरे घनश्याम के केश 'लाम' की तरह घुंघराले हैं. जो इन
घुंघराले बालों वाले के दास नहीं वे काफिर हैं। )

ज्ञातव्य
हो
कि र्दू के वर्ण 'लाम' की आकृति गर्दन की तरफ जाने वाले घुंघराले बालों की तरह होती है
















बुधवार, 2 जून 2010

जाति और स्वेटर

जाति आधारित जनगणना का मुद्दा आजकल चर्चा में है। जातिवादी राजनीति और आरक्षण इस देश का काफी नुक्सान कर चुके हैं । आगे और क्या होगा, यह देखना है। राज्य द्वारा विभिन्न जाति में भेद किये जाने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है ,इसकी एक झलक मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की द्वैमासिक पत्रिका 'अक्षरा' में प्रकाशित दिल्ली की कुहेली भट्टाचार्य की इस लघुकथा से मिलती है :

दो ही जातियों के लोग इस गाँव में रहते हैं.दोनों की ही आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब है। पर्वतीय जनजातीय विभाग की ओर से स्वेटर दिए गए हैं स्कूली बच्चों में बांटने के लिये -पर केवल 'बैगर' जाति के छात्रों को, जबकि जरूरत सभी बच्चों को है। सर्दी के मौसम में सारे छात्र एक दूसरे से चिपक कर बैठे हुए थे और सामने शिक्षक खड़े थे। उनके हाथ में स्वेटरों का भारी बोझ था, पर वे उन्हें बाँट नहीं पा रहे थे। उनके लिये सारे बच्चे एक सामान थे। वे जानते थे- ये बच्चे जिनकी उम्र ७-८ साल है, जिन्हें अपनी जात - पात के बारे में कुछ नहीं पता, जो आपस में दोस्त हैं, एक दूसरे से चिपके बैठे हुए हैं,स्वेटर बंटते ही अलग हो जायेंगे। एक दल स्वेटर वाला, एक बिना स्वेटर वाला। शिक्षक किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे।