गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

भट्टा बैठाने वाले ये कर्मचारी-अधिकारी !

मुझे याद रहा है जब कुछ वर्ष पूर्व मैं ब्रोडबैंड कनेक्शन की जानकारी लेने के इरादे से बी.एस.एन.एल दफ्तर पहुंचा तो वहाँ बैठे खिचड़ी बालों वाले एक अधेढ़ व्यक्ति ने मुझे एक पर्चा थमा दियाजब मैंने कुछ पूछना चाहा तो उसने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया- इस पर्चे में सब लिखा हैमैं मायूस घर लौट आया और ब्रोडबैंड कनेक्शन लेने का मेरा इरादा लंबित रहाकुछ दिनों बाद जिस दिन मुझे अपना डायलअप कनेक्शन रीन्यू कराना था, उसी दिन एयरटेल से ब्रोड बैंड लेने हेतु एक फोन आयामैंने तुरंत ही सम्बंधित कर्मचारी को घर पर बुलवा लियावह कर्मचारी पूरी तैयारी के साथ आया था और उसने मेरे निवास पर ही १५-२० मिनट के भीतर सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद एक या दो दिन में कनेक्शन उपलब्ध कराने का वादा कियायह घटनाक्रम प्रातः ग्यारह बजे का हैउसी दिन शाम को चार बजे के आसपास कनेक्शन लग चुका था

अभी दो दिन पहले एयरटेल द्वारा दिए गए मोडम ने काम करना बंद कर दियामैंने इसकी शिकायत उसके कॉल सेंटर में कीउपस्थित कर्मचारी ने बड़ी विनम्रतापूर्वक यह जानना चाहा कि कम्पनी के सर्विस इंजीनियर की विजिट के लिये कौनसा समय मेरे लिये सुविधाजनक होगामैंने उसको दिन में एक बजे से पहले का समय बतायाजवाब में मुझे बताया गया कि अपनी प्री-बुकिंग के कारण इंजीनियर को थोड़ी देर हो सकती है पर वो अधिकतम दो बजके इकतालीस मिनट उनतालीस सेकण्ड तक पहुँच जायेंगेलेकिन सर्विस इंजीनियर मेरी सुविधानुसार साढ़े बारह से पहले ही पहुँच गए थे

इसके विपरीत बी.एस.एन.एल के लैंड लाइन कनेक्शन को सुधरवाने के लिये मुझे सात आठ दिन की प्रतीक्षा करनी पड़ी और कॉल सेंटर में शिकायत करने के बाद लाइन मेन, सुपरवाईजर, सहायक यंत्री और अधीक्षण यंत्री तक सबसे निवेदन करना पड़ाजब सहायक यंत्री से मैंने जानना चाहा कि कब तक फोन ठीक हो जाएगा तो उनका उत्तर था- जब आपके फोन पर घंटी बजने लगेगी

सरकारी कम्पनियां अपनी ऐसी हरकतों से इन कंपनियों का भट्टा बैठाने और प्रतिद्वंदी निजी कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने का काम करती रहती हैंविजय सुपर स्कूटर का नामोनिशान मिट चुका है, एच.एम.टी घड़ियाँ दुर्लभ हैंबी.एस.एन.एल भी इसी राह पर चले जाए तो कोई ताज्जुब नहीं

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

जागो हिन्दू जागो - कट्टरपंथी बनो

धार्मिक कट्टरपंथ सामान्यतः अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता | लेकिन यदि धर्मग्रंथों की अच्छी बातों का कट्टरता से पालन किया जाय तो इस प्रकार की कट्टरता मानव कल्याण ही करेगी |

हजारों वर्ष पूर्व ही हमारे ऋषि मुनियों ने महसूस कर लिया था कि
समाज में स्त्री शक्ति का सम्मान ही नहीं होना चाहिए अपितु उसे पुरुष की अपेक्षा श्रेष्ठ भी माना जाना चाहिए | सद्यः संपन्न नवरात्र पर्व इसी तथ्य की ओर इंगित करता है | मातृ शक्ति का पूजन और कन्या पूजन की परम्परा संभवतः समाज में नारी को आदर का स्थान देने के लिये ही की गयी थी | इस लिहाज से वे ऋषि मुनि नारी सशक्तीकरण के प्रवर्तक थे |

किन्तु व्यवहार में देखा जाता है कि हिन्दू समाज में ऋषि मुनियों द्वारा प्रतिपादित नारी की श्रेष्ठता का सम्मान नहीं किया जा रहा है | यदि हिन्दू समाज नारी-श्रेष्ठता को हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग मान कर कट्टरता से उसका पालन करे तो यह कट्टरता श्रेयस्कर ही होगी |

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सरकार की ताकत

मेरा शहर ९२ में दंगों की चपेट में आया थामेरा स्कूटर, जो तब सर्विस सेंटर में था, भी दंगाइयों ने जला डाला था | इस बार २४ सितम्बर से ३०सितम्बर तक भी लोगों में आशंका मौजूद थी |पिछले सबक को याद कर के घरों में राशन, सब्जी आदि का भण्डार जमा किया जाने लगा था | शरारती तत्व अपनी तरह की तैयारी में लगे थे | लेकिन किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं हुई कि जरा भी गड़बड़ी कर सके | यही नहीं इन दिनों शहर में होने वाले आम अपराध भी नहीं सुनाई दिए | क्यों ? क्योंकि मुख्यमंत्री ने कलेक्टरों और पुलिस अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दे दिए थे कि उनके क्षेत्र में होने वाली किसी भी गड़बड़ी के लिये ये अधिकारी जिम्मेदार होंगे और राजनीतिक दबाव की दलील नहीं मानी जायेगी | अर्थात जवाबदेही तय कर दी गयी थी और अधिकार दे दिए गए थे | फलतः पुलिस ने गड़बड़ी करने, करवाने वालों , जिनमें राजनीतिक दलों से सम्बद्ध दादा भी थे,को जिलाबदर करने की कारवाई दो दिन में ही कर डाली | सामान्य दिनों में कोई पुलिस अधिकारी इन लोगों की ओर आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता था |


क्या ऐसी व्यवस्था के लिये ३० सितम्बर जैसे हालात होने जरूरी हैं ? क्या ऐसी जवाबदेही सदा तय नहीं की जा सकती ? की जा सकती है और की जानी चाहिए | दृढ इच्छाशक्ति
वर्तमान कानूनों के भीतर ही सुशासन दे सकती है |











सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

ब्लॉगजगत का एक और घटियापन

२३ सितम्बर से ३० सितम्बर के बीच और उसके तुरंत बाद का भारत एक अपरिपक्व देश की छवि प्रस्तुत करता है |उच्च न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले एक फैसले को शांतिपूर्वक सुनने के लिये हमारे प्रधान मंत्री को जनता से अपील करनी पड़ती है , भारी सुरक्षाबल तैनात करने पड़ते हैं , ३० सितम्बर को शाम तीन बजे से अनेक शहरों में कर्फ्यू का सा माहौल बन जाता है | सभी सम्बंधित पक्ष बार बार कहते हैं कि उन्हें अदालत का फैसला मंजूर होगा ,मानो अदालत का फैसला मान कर वे कोई अहसान कर रहे हों | यह सब अपरिपक्वता की ओर ही इंगित करता है |

अदालत के फैसले के बाद असंतुष्टों को ऊपरी अदालत में जाने का पूरा अधिकार है | लेकिन एक विशेष प्रकार के फैसले की प्रतीक्षा कर रहे लोगों की टिप्पणियाँ अपरिपक्वता को और अधिक उजागर करती हैं | ब्लॉग जगत में तो एक ब्लोगर ने जजों द्वारा दिए फैसले को 'अ-कानूनी' करार दे दिया | मतलब अब उच्च न्यायालय के जजों को क़ानून सीखने के लिये ब्लॉगजगत के दरवाजे खटखटाने पडेंगे ? यह ब्लॉग जगत की अपरिपक्वता (घटियापन)नहीं तो और क्या है ?

वैसे इस मामले में मेरी व्यक्तिगत राय उन हिन्दू-मुसलामानों से मेल खाती है, जो मानते हैं कि अदालत के फैसले के बाद उस स्थान पर राम मंदिर बनाने में मुसलमान सहयोग करें और अन्यत्र मस्जिद बनाने के लिये हिन्दू उससे अधिक सहयोग करें |

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

पाखण्ड अच्छा है

"रमजान में आपसे झूठ नहीं बोलूंगा" एक मेकेनिक ने मुझसे कहा | "रमजान में मैं झूठ नहीं बोलूंगी" एक महिला कर्मचारी बोली | हालांकि उसने यह भी जोड़ा - झूठ तो मैं वैसे भी नहीं बोलती | नवरात्र पर उपवास और अनेक नियमों का पालन करने वाले कुछ लोग उन नौ दिनों में बुरे कहे जाने वाले कामों से विरत पाए जाते हैं | एक व्यक्ति ने फोटो पोस्टर की दुकान में कुछ धार्मिक फोटो पसंद किये और दुकान दार से बोला- कृपया इन फोटो को मेरे लिये सुरक्षित रख दें, मैं बाद में आकर खरीदूंगा, इस समय मेरे पास पाप की कमाई (जुए में जीती राशि ) है, इससे ये फोटो नहीं खरीद सकता | रोजे-नमाज़, व्रत-उपवास आदि कर्मकाण्ड अपनाने वालों को हम बोलचाल में धार्मिक कह देते हैं | हालांकि धार्मिक तो वे हैं जो श्रद्धा,मैत्री,दया,शान्ति आदि गुणों से युक्त हों|ऐसे कर्मकांडी धार्मिकों और पाप की कमाई से धार्मिक फोटो न खरीदने वाले लोगों को हमारे कुछ मित्र (जिनमें से कुछ ब्लॉग जगत में भी मौजूद हैं),पाखंडी भी कह देते हैं |


ऐसे कर्मकांडी या पाखंडी यदि अपनी धार्मिक भावना के वशीभूत थोड़े समय के लिए ही अच्छे कामों में लिप्त हो जाते हैं या उनके मन में अच्छे विचार आ जाते हैं तो ऐसा पाखण्ड भी अच्छा है|गलत कह रहा हूँ ?



सोमवार, 6 सितंबर 2010

एक और सार्थक प्रयास

ब्लॉग जगत में सार्थकता  देख कर मुझे प्रसन्नता होती है | सभी को होती होगी | आज एक और सार्थक प्रयत्न नजर आया | श्री   का यह प्रयत्न शायद आपको पसंद आये :- 
www.gaonwasi.blogspot.com/
(लिंक नहीं बन पा रहा है ,इसलिए ब्लॉग का पता दे रहा हूँ) 

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

अग्रे किं किं भविष्यसि

'अग्रे किं किं भविष्यसि' यह वाक्य व्याकरणीय दृष्टि से सही है या नहीं , यह मैं नहीं जानता | किन्तु मेरी माताजी ने मुझे यह कहानी इसी शीर्षक के तहत सुनाई थी, इस लिये इसी वाक्य का प्रयोग कर रहा हूँ | प्रायः हम पतन या बुराई को घटित देखते हैं और सोचते हैं कि आगे न जाने और कितना बुरा होगा | कवि की ये पंक्तियाँ भी इसी ओर इंगित करती हैं-
क्या थे , क्या हो गए और क्या होंगे अभी
किन्तु कभी कभी जीवन में इतना बुरा घटित हो चुका होता है कि हम सोचने लगते हैं- अब इससे बुरा और क्या घटित हो सकता है ? किन्तु यह धारणा भी गलत हो सकती है , यह निष्कर्ष इस कथा से निकलता है, जो मुझे बचपन में मेरी माता जी ने सुनाई थी -

एक विद्वान काशी से विद्या प्राप्त कर अपने गृह नगर लौट रहे थे | रास्ते में उन्हें एक (कंकाल की ) खोपड़ी पड़ी मिली | विद्वान को प्राप्त शिक्षा के अनुसार उस खोपड़ी की लेख कहती थी- 'अग्रे किं किं भविष्यसि' | अर्थात आगे न जाने क्या क्या भुगतना है ? विद्वान को आश्चर्य हुआ | भला इस कंकाल को अब क्या भुगतना पड़ सकता है- उन्होंने सोचा | जिज्ञासावश उन्होंने उस खोपड़ी को उठा लिया और घर पहुँचने पर एक संदूक में संभाल कर रख दिया | उन्होंने अपनी पत्नी को हिदायत दे रखी थी कि इस संदूक में उनकी महत्वपूर्ण सामग्री है, अतः उसे कभी न खोलें | विद्वान समय समय पर उस खोपड़ी को देख लिया करते थे और सदा वही वाक्य लिखा पाते - अग्रे किं किं भविष्यसि |

एक बार उन विद्वान की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी ने उस संदूक के रहस्य को समझने की ठान ली | संदूक खोलने पर उस खोपड़ी को देख कर वह स्तब्द्ध रह गयी | उसने अनुमान लगाया कि यह खोपड़ी अवश्य उसकी सौत की है | उसके पति सौत की मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी उसे भुला नहीं पाए हैं और उसकी खोपड़ी को सहेज कर रखा है | पत्नी ने उस खोपड़ी को ओखल में कूट कर चूरा बना दिया और उसे खेत में बिखेर दिया | विद्वान को जब यह बात मालूम पड़ी तो उन्हें संतोष हुआ कि उनके द्वारा प्राप्त विद्या सही है | उन्होंने उस खोपड़ी की लेख को सही पढ़ा था |

तो बन्धु पतन की जिस सीमा को आप पराकाष्ठा समझते हैं, हो सकता है पतनोन्मुखी उससे भी आगे पंहुच जाए | कभी कभी ब्लॉगजगत में भी घटियापन देख कर लगता है, न जाने आगे क्या क्या घटियापन देखना पडेगा !

सोमवार, 30 अगस्त 2010

पुस्तक - एक शानदार उपहार

बड़ी  बेटी  का फोन आया |अभिवादन और आशीष के बीच उसे शायद मोबाइल में कुछ बाहरी आवाजें सुनाई दीं | कहाँ हैं ? क्या कर रहे हैं ?- वह बोली |
स्टोर  में हूँ और छोटी ( बेटी ) के लिये बर्थ डे गिफ्ट  खरीद रहा हूँ -  मैंने उत्तर दिया |
क्या खरीद रहे हैं ? - उसने पूछा |
तुम बताओ - मैंने कहा |
आप बुक स्टोर  में हैं और छोटी के लिये किताब खरीद रहे हैं - बड़ी बेटी का सही अनुमान था |

मुझे ध्यान आता है कि मैंने अपने बच्चों  के जन्म दिन पर अधिकतर  पुस्तकें ही भेंट की हैं |.अपने कुछ मित्रों को भी जन्मदिन पर पुस्तक भेंट करना ही मुझे उपयुक्त लगा | मैं तो शादी ब्याह के निमंत्रणों  पर भी पुस्तकें भेंट करना चाहता हूँ , लेकिन पत्नी के विरोध के कारण ऐसा नहीं करता |  मेरा विचार है भेंट स्वरूप पुस्तकें देना एक अच्छा विकल्प है | आज शायद पुस्तकों के प्रति हमारा मोह कम होता जा रहा है | एक कारण पुस्तकों का मूल्य अधिक होना भी है | लेकिन मूल्य ही एकमात्र कारण नहीं है | हम आउटिंग  में, मनोरंजन में, डेकोरेशन में दिल खोल कर खर्च कर सकते हैं, तो पुस्तकों पर क्यों नहीं ? मुझे साठ का वह दशक याद आ रहा है, जब हिन्दी में अनेक स्तरीय  पत्रिकाएँ  थीं | हिंद पाकेट बुक्स ने घरेलू लायब्रेरी योजना शुरू की थी , जिसमें दस  रुपये     प्रति माह में बिना डाक खर्च के स्तरीय पुस्तकें प्राप्त कर आप घर पर ही  एक छोटी मोटी लायब्रेरी बना सकते थे| मधुशाला, उमर खैयाम की  रुबाइयां, शरतचंद्र और प्रेम चन्द्र के उपन्यास, कृशन  चंदर की एक गधे की आत्म कथा, एक वायलन समंदर के किनारे आदि अनेक स्तरीय कृतियाँ  हमने इसी घरेलू लायब्रेरी योजना के तहत पढी थीं |  आज संभवतः कोई प्रकाशक इस प्रकार की योजना नहीं चलाता है | संभवतः प्रकाशकों का ध्यान सीधे पाठकों की ओर न हो कर सरकारी खरीद  की ओर अधिक है, जिसके कारण पुस्तकों  का मूल्य उन्हें अधिक रखना पड़ता है ताकि दिए जाने वाले कमीशन की भरपाई हो जाए | जहां कमीशन न देना पड़े वहाँ डिस्काउंट  दे सकते हैं |

 घरेलू लायब्रेरी योजना जैसी योजना चलाना या पुस्तकों का मूल्य कम करना तो हमारे नियंत्रण में नहीं | लेकिन एक दूसरे को पुस्तकें उपहार स्वरूप देकर हम पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहयोगी बन सकते हैं |

बुधवार, 25 अगस्त 2010

बदलते रिश्ते

दूसरे शहर में रहने  वाली अपनी विवाहिता बेटी से फोन पर बात हुई | वह उस समय शौपिंग कर रही थी | उसके ससुर  उसे राखी के त्यौहार पर कपड़े दिलाने लाये थे | उसके ससुराल में उसकी जन्म तिथि पर हिन्दू पद्धति से और जन्म दिन  पर केक काट कर   उत्सव  मनाया जाता है | जब फोन पर मैं अपने समधी जी से बात कर रहा होता हूँ और अपनी  बेटी के लिये  'आपकी बहू ' शब्द  प्रयोग  कर  देता  हूँ तो वे नाराज हो जाते हैं | उनका मानना है कि वह उनकी बेटी है | उन सास बहू या ससुर बहू को जब बिलकुल अनौपचारिक तरीके से हंसी मजाक करते  देखता हूँ तो अचंभित होता हूँ  और बेटी के सास ससुर  की अनुपस्थिति में बेटी को समझाने का यत्न करता हूँ - आखिर वे तुम्हारे सास ससुर हैं, उनसे एक सम्मानजनक दूरी से बात करनी चाहिए | वे खुद ही यह दूरी नहीं बनाने  देते -बेटी का उत्तर होता है | मैं निरुत्तर हो जाता हूँ |

 उसकी शादी के ठीक पहले हम दोनों माता  पिता ने उसे सीख देनी शुरू कर दी थी- 'अब ससुराल जाने वाली हो , यह  अल्हड़पन छोड़ो | सास ससुर के सामने उठने बैठने  और बातें करने का कायदा सीखो | सास ससुर माता पिता जैसे नहीं होते |' कुछ महीने ससुराल में रहने के बाद जब वह पहली बार हमारे पास आयी तो बोली- 'ससुराल में मुझे कुछ अटपटा नहीं लगता | मेरी ननद  मेरी बहुत अच्छी मित्र बन गयी है | सास ससुर का व्यवहार भी आप जैसा ही है | वे भी कभी कभी मुझे आप ही की तरह डाँट देते हैं और मैं आप की ही डाँट समझ कर चुप हो जाती हूँ | 

मैं सोचता हूँ - यह जो वास्तविक जीवन में देख रहा हूँ उसे सच मानूं या टी वी में आ रहे सास बहू  सीरियलों को?

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

क्रूरता या जनरेशन गैप ?

हमारी पीढ़ी के लोग पहले पढ़ाई पूरी करते थे उसके बाद नौकरी की तलाश करते थे | आज कुछ संस्थानों में पढने वाले बच्चों के लिये कुछ कम्पनियां स्वयं नौकरी लेकर आती हैं |ऐसे संस्थानों में इंजिनीयरिंग संस्थान,प्रबंधन संस्थान और क़ानून की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय संस्थान शामिल हैं| इस प्रकार पाई गयी नौकरी कैम्पस सलेक्शन कहलाती है |

एक इन्जीनीअरिंग संस्थान  के कैम्पस के अन्दर संस्थान के  कुछ लड़कों को संस्थान के ही  कुछ दूसरे लड़के  पीट रहे थे | न तो वे रैगिंग ले रहे थे न ही लड़ रहे थे | वे तो सेलिब्रेट कर रहे थे|हुआ यह था कि पिटने वाले लड़कों का कैम्पस सेलेक्शन हो गया था, इस लिये अन्य लड़के उन्हें पीट रहे थे |यह उनके खुशी मनाने का तरीका था | कुछ ऐसा ही तरीका ये लोग बर्थ डे मनाने के लिये भी अपनाते हैं | जिसका जन्मदिन हो उसे उठा उठा कर पटकना  और लातें मारना इनके सेलिब्रेट करने का तरीका है |

जो तरीके इन बच्चों के लिये खुशी मनाने के साधन हैं वे हमें क्रूर लगते हैं| क्या यही जनरेशन गैप है ? क्या इस जनरेशन गैप को मिटाने के लिये हम भी अपने बच्चों को नौकरी मिलने पर बेल्ट से पीटें और उनके जन्म दिन पर उन्हें लातों से मारें ?

सोमवार, 9 अगस्त 2010

जीवन सच या झूठ ?

एक मय्यत  में  गया  था | कुछ पुराने  परिचित मिल गए | आजकल पुराने परिचितों से मेल मुलाक़ात  शादी ब्याह के समारोहों या मय्यत में ही हो पाती  है | मिलने पर बात चीत  मृतक से शुरू हो कर परिवार, बच्चे और राजनीति तक पहुँचती है | मृतक  चौरासी साल की आयु के थे | मंदिर जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक दिल  का दौरा पडा और चल बसे |

आदमी  अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके तो इसप्रकार चलते फिरते चले जाना अच्छा ही है- मैंने कहा |
मेरी हाँ  में हाँ मिलाई  अडसठ-सत्तर वर्ष के  जोशी जी ने |
हमारी पीढी खुशनसीब रही-अड़सठ-सत्तर वर्ष के ही भट्ट साहब ने कहा | हमसे पहले की पीढी पचपन- साठ साल में ही इस लोक से विदा हो जाया करती थी | हममें कुछ अवेयरनेस आई | अब  हमसे आगे वाली  पीढी भी पचास- साठ साल से ज्यादा नहीं जियेगी | दोनों मियाँ बीबी कमाते हैं खाना बनाने  का समय नहीं, होटल चले जाते हैं | 
होटल  जाने की भी जरूरत नहीं | फोन करो और घर पर ही खाना हाजिर  - पचास वर्ष से कम  आयु के महेश का मत था |

सहसा मेरा  ध्यान कुछ परिचितों   की ओर गया जो पैंतीस - चालीस की उम्र में ही हृदयाघात से चल बसे थे  | मैं सोचने लगा- क्या भट साहब के कथन में सच्चाई है ? क्या नयी पीढी को  मिल रहा मिलावटी,कीटनाशकयुक्त भोजन,फास्ट फूड, काम का   बोझ  और तनाव,अनियमित दिन चर्या उनकी आयु के लिये घातक  बनता जा रहा है ? क्या नयी  पीढी अपने कैरियर बनाने  और  अर्थोपार्जन के चक्कर में अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती जा रही है? यदि ऐसा है तो यह एक गंभीर चिंता की बात है | प्राथमिकता तो स्वास्थ्य को ही मिलनी चाहिए |

श्मशान घाट पहुंचे | वहां एक स्थान पर लिखा  था- जीवन झूठ  है | मृत्यु सच है |
मैं सहमत नहीं हो पाया | मृत्यु सच है | जीवन भी सच है | जीवन की परिणति मृत्यु है | झूठ  की परिणति सच कैसे हो सकती  है ? जीवन को जीना है स्वस्थ रह कर सार्थकता के साथ |

सोमवार, 2 अगस्त 2010

ब्लॉगिंग बन सकती है सामाजिक चेतना की प्रवर्तक - उदाहरण प्रस्तुत है

साहित्य और पत्रकारिता  ने सामाजिक चेतना जागृत की है - ऐसा प्रायः कहा जाता है | स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह धारा संभवतः तीव्र थी | ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे भी अधिक ब्लोगिंग के जरिये भी सामाजिक चेतना या किसी आन्दोलन का प्रवर्तन और उत्प्रेरण किया जा सकता है | इस कार्य के लिये ब्लोगिंग अधिक अनुकूल इस लिये है क्योंकि यहाँ ब्लोगर के मध्य आपसी संवाद आसानी से संभव है | मेरी पिछली पोस्ट का ही उदाहरण ले लीजिये जहां मैंने मोबाइल सर्विस कंपनियों द्वारा की जा रही बेईमानी का जिक्र किया था | टिप्पणियों से पता चला कि इस तरह की बेईमानी से पीड़ितों की संख्या काफी बड़ी है | बेचैन आत्माजी,राजेन्द्र जी, पी. एस. भाकुनी जी, हरकीरत जी, मो सम कौन जी , बबली जी, मानोज कुमार जी और संध्या गुप्ता जी ने भी इसी तरह के अनुभव होना बताया | हरकीरत जी और विचार शून्य जी ने जहां बी. एस. एन एल पर भरोसा करने का जिक्र किया वहीं रचना दीक्षित  जी  ने बी. एस. एन. एल को भी कटघरे में खडा कर दिया |  उस पोस्ट को पढने वाले और उस पर टिपण्णी देने वाले बहुत थोड़े से लोगों में ही इतने पीड़ित निकल आये  तो पूरे देश के पीड़ितों की विशाल संख्या का अनुमान लगना आसान हो जाता है| यह निष्कर्ष आपसी संवाद से ही संभव हो पाया और यह सम्वाद संभव हो पाया ब्लोगिंग के माध्यम से|

निष्कर्ष  १ - मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनियों की लूट और दादागिरी से उपभोक्ताओं की एक बड़ी संख्या त्रस्त है | 

मो सम कौन जी ने माना कि पीड़ित होते हुए भी बीस तीस रुपये की बात मान कर हम चुप रह  जाते हैं | वास्तव में यही मानसिकता अधिकाँश पीड़ितों की है | इसी के चलते कंपनियों  को गलत काम करने की शह मिलती है|

निष्कर्ष  २  - अधिकाँश पीड़ित विभिन्न कारणों से  इस दादागिरी को सहन कर लेते हैं और कोई प्रतिकार नहीं करते |  

सतीश सक्सेना जी, बेचैन  आत्माजी, विनोद कुमार पाण्डेय जी, सदा जी और अजय कुमार जी ने इस  पीड़ा की शिकायत करने की बात कही | सतीश सक्सेना जी ने तो उपभोक्ता मंच जाने की बात कही थी | वास्तव में यदि समाधान चाहिए तो यही सही रास्ता है |

निष्कर्ष    ३ - समस्या के सही समाधान के लिये सम्बंधित अधिकारी या विभाग को शिकयात करनी चाहिए |

मुझे इस तीसरे निष्कर्ष  से  प्रेरणा मिली और  मैंने उपभोक्ता सलाह केंद्र में फोन कर के सम्बंधित कम्पनी  के हमारे शहर  के नोडल  अधिकारी और उच्च अधिकारियों के फोन  नंबर प्राप्त कर के उनसे संपर्क साधा और उनको धमकी भी दी कि यदि समाधान नहीं होता मैं दूर संचार नियामक प्राधिकरण( TRAI )  में शिकायत करूंगा | 
अंततः   कंपनी ने मुझसे जबरन वसूले पैसे मेरे खाते में वापस कर दिए | इन्हीं पैसों को वापस करने के लिये पहले वे साफ़ मना कर चुके थे | यदि मैंने इस घटना की पोस्ट ब्लॉग पर  न दी होती और उस पर प्रेरणादायक टिप्पणियाँ न आयी होतीं तो मैं भी चुप बैठ चुका था | यदि बहुत सारे पीड़ित इस तरह की शिकायतें कंपनियों के अधिकारियों से करें और समाधान न होने पर TRAI से शिकायत  करें तो हल  निकलने  की आशा की जा सकती है  |  TRAI के फ़ोन नंबर और ई मेल पता इस प्रकार हैं -

01123236308 
01123233466
ap@trai.gov.in



सोमवार, 26 जुलाई 2010

मोबाइल कंपनी की दादागिरी !

मोबाइल कंपनियों के लूट और डकैती के किस्से मैं पहले भी बता चुका हूँ|आज एक और किस्सा केवल इस लिये सुन लीजिये ताकि आप इस लूट से अपने आप को बचा सकें-
मेरे मोबाइल पर कुछ दिनों से बाइबिल के उपदेश बार बार आ रहे थे|मैंने सोचा शायद कोई धार्मिक संस्था अपने प्रचार के लिये ऐसा कर रही है|सहसा एक दिन एक मेसेज आया-आपका बाइबिल मेसेज अलर्ट रीन्यू कर दिया गया है और आपके खाते से तीस रुपये की कटौती की गयी है|जब मैंने कंपनी के कॉल सेंटर से संपर्क साधा कि बिना मेरी सहमति के यह एलर्ट चालू और रीन्यू कैसे हो गया ? तो बताया गया कि अलर्ट चालू तो आपने ही किया है( हो सकता है आपसे गलती से ओ के का बटन दब गया हो ) और एक बार चालू होने पर अपने आप रीन्यू हो जाता है|मैंने अपनी गलती मानते हुए इस सुविधा को तुरंत डीएक्टिवेट करने का आदेश दे दिया और आग्रह किया कि चूंकि रीन्यू मेरी मर्जी के बिना अभी अभी हुआ है और मैं इस सुविधा का उपयोग नहीं करूंगा, इस लिये पैसे मेरे खाते में रीफंड किये जाएँ|सुविधा तो डीएक्टिवेट हो गयी लेकिन पैसे रीफंड के लिये साफ़ मना कर दिया गया|अर्थात मेरी जेब में हाथ डाल कर उन्होंने सुविधा देने के लिये जो पैसे अभी अभी निकाल लिये थे वे उसे,मेरे द्वारा सुविधा न लेने पर भी वापस नहीं करेंगे | एक और बात ध्यान देने योग्य है, इस तरह का छल केवल उन्हीं ग्राहकों से किया जाता है जिनके पास पर्याप्त बेलेंस होता है|यदि बेलेंस निर्धारित राशि से कम होगा तो ऐसी वारदात नहीं होगी | इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे पास फिर एक मेसेज आया - मूवी अलर्ट चालू करवाने के लिये धन्यवाद,आपके खाते से तीस रुपये काट लिये गए हैं(मूवी अलर्ट सेवा क्या होती है और कैसे एक्टिवेट होती है,मुझे नहीं मालूम और न मैंने कभी यह सुविधा अपने फोन पर चाही)|मैंने फिर तुरंत कंपनी के कॉल सेंटर सम्पर्क साधा |फिर वही उत्तर मिला - सुविधा डीएक्टिवेट कर दी जायेगी,लेकिन पैसे रीफंड नहीं होंगे|अंततः तंग आ कर मुझे सारे प्रोमोशनल कॉल और मेसेज बंद करवाने पड़े|बाद में मैंने ध्यान दिया कि मेरे फोन पर अनेक बार बिना किसी रिंगटोन के मेसेज आते हैं और ऊपर लिखा होता है- सूचना | फिर नीचे सम्बंधित सूचना होती है और केवल एक ऑप्शन होता है- ओ. के.यदि यह बटन गलती से दब गया तो पैसे कट कर सुविधा चालू हो जायेगी|लेकिन जब हम तुरंत ही इस गलती की ओर सुविधा शुरू होने से पहले ही कंपनी का ध्यान दिला देते हैं तो कंपनी द्वारा पैसे काट लिये जाना उनकी दादागिरी नहीं तो और क्या है ?

मेरे कुछ परिचितों ने भी ऐसे ही तथ्यों से मुझे अवगत कराया, जिसमें उनकी सहमति के बिना कोई सुविधा चालू कर के पैसे काट लिये गए और शिकायत करने पर पैसे लौटाने से साफ़ मना कर दिया गया|उन्हें भी यही उत्तर मिला कि आपके द्वारा अनजाने में सुविधा चालू कर दी गयी होगी| मुझे इन बेईमानों की बात पर विश्वास नहीं| हो सकता है ग्राहक द्वारा गलती से भी सुविधा चालू न करवाने पर भी ये अपनी मर्जी से सुविधा चालू कर के पैसे लूट लेते हों|

सोमवार, 19 जुलाई 2010

गाली या आशीष ?

'तुम्हारा   एक  भी  दांत  न  बचे ताकि  तुम भात  भी पीस कर खाओ, तुम इतने अशक्त हो जाओ कि शौच जाने के लिये भी लाठी का सहारा लेना पड़े'- यह वाक्य किसी व्यक्ति के लिए गाली की तरह ही प्रयुक्त  किया जा सकता है. किन्तु कूर्मांचल के त्यौहार 'हरेला' में कुछ इसी तरह के वाक्यों से आशीष दी जाती है.  कूर्मांचल में हरेला त्यौहार का  महत्व इस तथ्य से भी पता लगता है कि  इस दिन उत्तराखंड  में शासकीय अवकाश  रहता है.१७ जुलाई संक्रांत को हरेला था.साल भर में तीन हरेला  पर्व होते हैं . इस त्यौहार  में विभिन्न अनाजों को एक डलिया में  ठीक उसी तरह बोया जाता है जैसे कई स्थानों में नवरात्र पर जवारे बोये जाते हैं. पर्व के दिन उन अनाजों के उगे पौधों को काट कर तिलक लगाने के बाद सर पर रखा जाता है. सर पर रखने की एक विशेष पद्धति होती है. पहले पैर. फिर घुटने , फिर कंधे को छुआते  हुए अंत में सर पर  रखे जाते हैं.त्यौहार की विस्तृत जानकारी के लिये लेख के अंत में , मैं लिंक दे रहा हूँ. यहाँ तो मैं सिर्फ हरेले के टीके के बाद दी जाने वाली आशीष का जिक्र करना चाहता हूँ.

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।
 
{जीते रहो,पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश की तरह प्रशस्त( उदार) बनो,सूर्य के समान तेज, सियार के समान बुद्धि हो,दूब की तरह पनपो, इतने दीर्घायु हो कि ( दांतों से रहित )तुम्हें  भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच (जंगल) जाने के लिये भी लाठी का सहारा लेना पड़े.}

देखिये  कैसे एक गाली सी लगने वाला वाक्य आशीष और शुभकामना में बदल गया.  गाली को  यह सौभाग्य पर्व के कारण मिल गया. धन्य हैं हमारे ऐसे पर्व जो गाली को भी आशीष  में बदल देते हैं. 

हरेला त्यौहार के लिंक -

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

दो फूलों की कहानी


वैसे तो बालकनी में और भी गमले हैं, लेकिन यहाँ मैं केवल दो की कहानी कहूंगा. इनमें से एक गमला सफ़ेद फूल वाला है, जो लगभग बारहों मास फूल देता है, जिन्हें मैं प्रायः नित्य पूजा हेतु तोड़  लिया करता हूँ.इस तरह यह गमला मेरे  लिये एक उपयोगी पौधे वाला गमला है. यह किसी न किसी तरह से मेरी सहायता कर रहा है और लाभ पंहुचा रहा है.इसलिए  मुझे  इससे ज्यादा लगाव होना चाहिए. लेकिन शायद ऐसा है नहीं. यह पौधा नित्य फूल देता है- इसे मैं इसका स्वाभाविक गुण मान लेता हूँ.इसके प्रति कृतज्ञता का भाव मुझमें नहीं है.

दूसरा गमला गुलाब के फूल का है.कुछ वर्ष पूर्व जब मैंने इस गुलाब के पौधे को गमले पर रोपा था और कुछ समय बाद एक सुन्दर गुलाब का फूल खिला था, तो मेरा पूरा परिवार रोमांचित था.तब शायद इसकी सुन्दरता हम लोगों को आकर्षित करती थी. (लगाव का एक कारण सौन्दर्य भी है).आज इस गुलाब में वैसा आकर्षण नहीं है.फूल की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है.खिलने के बाद डाली में अधिक टिकता भी नहीं है.अर्थात इसकी उपयोगिता सफ़ेद फूल  के मुकाबले कुछ भी नहीं.लेकिन जब मौसम  आने पर गुलाब के पौधे में कलियाँ आने लगती हैं तो मेरा पूरा परिवार आज भी रोमांचित होता है, एक दूसरे को वह कली दिखाता है जिसमें कुछ दिनों बाद फूल खिलेगा.हमें गुलाब के खिलने की प्रतीक्षा आज भी रहती है.

आखिर क्यों हम , सफ़ेद फूल की अपेक्षा गुलाब के प्रति  अधिक  संवेदनशील हैं. क्या इस लिये कि उसकी सुन्दरता सफ़ेद फूल की अपेक्षा अधिक है, या इसलिए कि गुलाब केवल मौसम पर ही खिलता है और फिर अगले मौसम  पर आने का वादा कर चला जाता है जबकि  सफ़ेद फूल नित्य ही हमारे पास बने रहता है. क्या गुलाब विदेश जा  कर नौकरी करने  वाला बेटा है, जो कभी कभार आकर दिलासा दे जाता है और सफ़ेद फूल पास में रहने वाली संतान जो हर सुख दुःख में काम आती है?   

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

स्कूल चलो - हिन्दू मुसलमान का भेद समझें.

मेरी नातिन पहली बार स्कूल गयी। स्कूल जाने के नाम पर वह बहुत खुश थी। उसके माता पिता भी खुश थे। आखिर यह उनकी संतान के जीवन का एक महत्वपूर्ण दिन था। मैंने भी उसे आशीर्वाद दिया- खूब पढ़ना, पढ़ - लिख कर अच्छा इंसान बनाना।

क्या नातिन पढ़ लिख कर एक अच्छा इंसान बनेगी ? क्या बहुत पढ़े लिखे व्यक्ति अच्छे इंसान होते हैं और अनपढ़ नहीं ? आखिर नातिन स्कूल क्यों जा रही है ? इस उम्र में सभी बच्चे स्कूल जाते हैं , इसलिए उसका जाना भी जरूरीहै। यदि नहीं जायेगी तो सरकार खुद आकर उसको स्कूल ले जायेगी। स्कूल जा कर नातिन ए से एप्पल से पढ़ना शुरू करेगी। अ से अनार भी पढेगी। वन, टू और एक दो भी। मुझे पूरा विश्वास है कि कुछ समय बाद उसे ए बी सी डी और वन टू तो याद रहेंगे लेकिन क से ज्ञ तक पूरे व्यंजन क्रम से नहीं बोल पायेगी और उनतिस, उनतालीस का फर्क ट्वेंटीनाइन और थर्टीनाइन बोल कर ही समझ पायेगी। वहाँ उसे सामाजिक अध्ययन पढ़ाया जाएगा। वहाँ उसे पढ़ाया जाएगा- हिन्दू मंदिर में जाते हैं, मुसलमान मस्जिद में जाते हैं, ईसाई चर्च में जाते हैं। नातिन ने केवल मंदिर देखा है। लेकिन उसे नहीं मालूम कि वह हिन्दू है। वह हिन्दू मुसलमान का फर्क करने में कन्फ्यूज हो जायेगी। उसकी माँ को समझाना पड़ेगा - उसकी दोस्त सालेहा मुसलमान है और मस्जिद में जाती हैपड़ोसी का बेटा जार्ज ईसाई है और चर्च में जाता है। धीरे धीरे उसकी समझ में आ जाएगा कि सालेहा और जार्ज भले ही उसके दोस्त हैं और उसे बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन वे विधर्मी हैं। यह ज्ञान उसको उसके घर पर नहीं मिल सकता था। क्योंकि जार्ज और सालेहा के मम्मी पापा से नातिन के मम्मी पापा की अच्छी मित्रता है और इन लोगों का एक दूसरे के घरों में जाना, दावतें करना चलता रहता है।सरकार 'स्कूल चलो' का नारा शायद इसी लिये लगाती है ताकि बच्चों को हिन्दू मुसलमान का फर्क अच्छी तरह समझ में आ जाए।


नातिन कुछ और बड़ी होगी तो उसे किसी फॉर्म में जाति भरने को कहा जाएगा।
उसके समझ में आने लगेगा कि सालेहा और जार्ज दूसरे धर्म वाले और वर्षा यादव और सीमा बाकोडे दूसरी जाति वाले हैं। स्कूली पढाई की एक जरूरत तो मेरे समझ में आ गयी - जिस धर्म भेद और जाति भेद को समझने में नातिन को वर्षों लग जाते उसे यह शिक्षा कुछ ही वर्षों में सिखा देगी।

धर्म और जाति का भेद यदि समाज मिटाना या कम करना भी चाहे तो सरकार की नीतियाँ उसे ऐसा नहीं करने देगी। वोट बैंक की राजनीति उसका एक बहुत बड़ा कारण है।

मैं कामना करता हूँ कि नातिन वाली पीढ़ी इस राजनीति को समझ सके और इसका प्रतिकार कर सके।

सोमवार, 28 जून 2010

ब्लॉगजगत में सार्थक भी हो रहा है

ब्लॉगजगत में उठापटक, वाद विवाद, टांग खिंचाई और आरोप प्रत्यारोप तो चलते ही रहते हैं,लेकिन कहीं कुछ बहुत सार्थक भी घटता रहता है, जो भविष्य में ब्लॉग विधा की सार्थकता सिद्ध करने वाला है.ऐसा ही एक प्रयास किया है विवेकानंद पाण्डेय ने अपने ब्लॉग देशभक्त में| इस ब्लॉग के माध्यम से वे संस्कृत भाषा का प्रशिक्षण देने का प्रयास कर रहे हैं.ऐसे प्रयासों की सराहना की जाना चाहिए और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.

शनिवार, 19 जून 2010

मुआवजे से ज्यादा जरूरी दंड.

एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी राजनीति और मुआवजे के चक्रव्यूह में फंसती नजर आ रही है। भाजपा जहां इस त्रासदी के फैसले को मुद्दा बनानेपर तुली है वहीं कांग्रेस योजना आयोग द्वारा गैस पीड़ितों के लिये आनन फानन में दिए गए ९८२ करोड़ रुपये की मदद कोअपने प्रयासों का फल बता रही है। ज्ञातव्य है कि इससे पहले मध्य प्रदेश ने आयोग से ९०० करोड़ की मदद माँगी थी, लेकिन आयोग नेध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि गैस पीड़ितों के लिये काम करने वाले संगठनों ने भाजपा द्वाराप्रायोजित धरने का विरोध कर यह जताने की कोशिश की कि वे इस राजनीतिक नौटंकी को समझ रहे हैं,किन्तु डर है कि वेभी मुआवजे के भ्रमजाल में फंस कर मुख्य मुद्दे को भूल न जाएँ । गैस त्रासदी के तुरंत बाद भी मुआवजा मुख्य मुद्दा होगया था । स्वयं सेवी संगठनों सहित राजनीतिक पार्टियां और स्वयं पीड़ित भी थोड़ा बहुत मुआवजे के चक्कर में दोषियों को दण्डित करने के मुख्य मुद्दे को भूल गए थे।

निस्संदेह पीड़ितों को दिया गया मुआवजा त्रासदी को देखते हुए बहुत ही कम था,लेकिन यह भी सच है कि मुआवजे की राशि भी भ्रष्टाचार के भंवर में बुरी तरह फंसी। पूरी संभावना है कि भविष्य में भी यह होगा। भोपाल के कुछ विधायक और नेता जिनके वोटर गैस प्रभावित क्षेत्र की परिधि के बाहर हैं, उनको भी मुआवजा दिलाने के लिये प्रयत्नशील हैं.अंधा बांटे रेवड़ी.....

बहरहाल जो भी पीड़ित है उसे मुआवजे की बढ़ी हुई राशि अवश्य मिलनी चाहिए। मेरा अनुमान है कि राज्य और केंद्र सरकारों के अपने अपने गणित (मुआवजे दिलाने का श्रेय)के अनुसार यह काम होगा भी। लेकिन मुआवजे की इस राजनीति में दोषियों को दण्डित करने का काम पिछड़ जाएअब दोषी तत्कालीन सत्तासीन राजनेता और अधिकारी हैं,जिन्होंने तब पीड़ितों का नहीं वरन आरोपियों का पक्ष ले कर आपराधिक कृत्य किया था.


रविवार, 13 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी - अब क्या करें?

भोपाल गैस त्रासदी के बारे में हम वह सब कुछ जान रहे हैं, जो हमारी जानकारी के स्रोत (मीडिया) हमें बता रहे हैंस्पष्ट हो चुका है कि प्रकरण को हल्का करने, हाथ आये आरोपी एंडरसन को देश से बाहर भगाने और हत्यारे यूनियनकार्बाइड को राहत पहुंचाने की कोशिश तत्कालीन सत्तासीन नेताओं एवं अधिकारियों ने कीगैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन और स्वयं पीड़ितों के लिये भी उस समय आरोपियों को सजा दिलाने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य मुआवजा प्राप्त करना था२६ साल बाद आये फैसले से पीड़ितों सहित सभी स्तब्ध और क्षुब्ध हैं, ठगे से हैं। लेकिन लाचार हैं। ईश्वर भी या तो 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति....' का वादा भूल गए हैं या इससे भी बड़ी 'धर्म की हानि 'की प्रतीक्षा कर रहे हैं।तो अब मनुष्य क्या करे ? मेरे मतानुसार अब यह किया जा सकता है:-


१- गैस त्रासदी के समय संबंधित जिम्मेदार अधिकारियों, सत्तासीन नेताओं के विरुद्ध विशेष अदालत में प्रकरण चला कर उनकी गैर जिम्मेदाराना हरकत के लिये दण्डित किया जाय और इस गैर जिम्मेदारी की सजा मृत्युदंड ( यदि क़ानून में व्यवस्था न हो तो क़ानून में संशोधन किया जाए ) तक हो।

२- वे सारे उत्पाद जिनसे यूनियन कार्बाइड का सम्बन्ध हो (जैसे एवेरेडी सेल)भारत में प्रतिबंधित हों। भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे ऐसा करेंगे , क्योंकि वे आसानी से खरीदे जा सकते हैं। इसलिए स्वयंसेवी संगठन लोगों को कार्बाइड के उत्पादों की सूची उपलब्ध करायें और उन्हें प्रेरित करें कि वे इन उत्पादों को न खरीदें। (यह कार्य त्रासदी के तुरंत बाद ही किया जाना चाहिए था)

उपरोक्त कदमों के लिये सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए इस हेतु दबाव डालने का काम भी स्वयंसेवी संगठन ही कर सकते हैं।

एक बात और गौर करने लायक है। इस प्रकार का फैसला किसी धार्मिक घटना को लेकर आया होता तो अब तक बवाल मच गया होता (याद कीजिये शाहबानो प्रकरण)। लेकिन इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि यदि इस फैसले सरीखे प्रकरण बार बार होते रहे तो जनता फैसला अपने हाथ में लेना शुरू कर सकती है और एक दूसरे प्रकार का नक्सलवाद पनप सकता है, जो प्रारम्भ में तो कसूरवार के प्रति होता है लेकिन बाद में बेकसूर भी उसके निशाने पर आते हैं और अराजकता बढ़ती है।








रविवार, 6 जून 2010

हैं वो काफिर जो....(ब्लॉगजगत को सीख)

बहुत पहले एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया था। बाद में वही किस्सा 'नवनीत' में पात्रों के नाम के साथ पढ़ा था। तब ज्ञात हुआ कि वह किस्सा नहीं वरन सत्य घटना थी। इस घटना से ब्लॉगजगत को भी सीख लेनी चाहिए। लेखकों , कवियों की आपसी नोंक झोंक को किस शालीनता से निभाया जा सकता है, यह घटना इस बात का उदाहरण है।'नवनीत' में सम्बंधित शायर और कवि का नाम भी दिया था, जो मुझे अब याद नहीं। वैसे हमारे बहुत से ब्लोगर मित्रों ने यह घटना अवश्य सुनी होगी । विवरण इस प्रकार है :-

एक गोष्ठी में शायर और कवियों के बीच समस्या पूर्ति का कार्यक्रम चल रहा था। अर्थात कोई एक शायर या कवि शायरी या कविता की एक पंक्ति बोलता और बाकी लोग उस पंक्ति की अगली पंक्ति बोलते। वहाँ उपस्थित एक मुसलमान शायर ने एक पंक्ति पढी :

हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस्लाम के

पंक्ति पढने के बाद शायर महोदय शारारत भरी नजरों से साथी हिन्दू शायर की तरफ देखने लगे। हिन्दू शायर महोदय तो मानो इस पंक्ति के रस में डूब गए थे।मुसलमान शायर की इस पंक्ति पर जबर्दस्त वाहवाही देने के बाद हिन्दूशायर ने समस्या पूर्ति इस प्रकार की :

'लाम' के मानिंद हैं काकुल मेरे घनश्याम के
हैं वो काफिर जो बन्दे नहीं इस 'लाम' के
(
मेरे घनश्याम के केश 'लाम' की तरह घुंघराले हैं. जो इन
घुंघराले बालों वाले के दास नहीं वे काफिर हैं। )

ज्ञातव्य
हो
कि र्दू के वर्ण 'लाम' की आकृति गर्दन की तरफ जाने वाले घुंघराले बालों की तरह होती है
















बुधवार, 2 जून 2010

जाति और स्वेटर

जाति आधारित जनगणना का मुद्दा आजकल चर्चा में है। जातिवादी राजनीति और आरक्षण इस देश का काफी नुक्सान कर चुके हैं । आगे और क्या होगा, यह देखना है। राज्य द्वारा विभिन्न जाति में भेद किये जाने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है ,इसकी एक झलक मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की द्वैमासिक पत्रिका 'अक्षरा' में प्रकाशित दिल्ली की कुहेली भट्टाचार्य की इस लघुकथा से मिलती है :

दो ही जातियों के लोग इस गाँव में रहते हैं.दोनों की ही आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब है। पर्वतीय जनजातीय विभाग की ओर से स्वेटर दिए गए हैं स्कूली बच्चों में बांटने के लिये -पर केवल 'बैगर' जाति के छात्रों को, जबकि जरूरत सभी बच्चों को है। सर्दी के मौसम में सारे छात्र एक दूसरे से चिपक कर बैठे हुए थे और सामने शिक्षक खड़े थे। उनके हाथ में स्वेटरों का भारी बोझ था, पर वे उन्हें बाँट नहीं पा रहे थे। उनके लिये सारे बच्चे एक सामान थे। वे जानते थे- ये बच्चे जिनकी उम्र ७-८ साल है, जिन्हें अपनी जात - पात के बारे में कुछ नहीं पता, जो आपस में दोस्त हैं, एक दूसरे से चिपके बैठे हुए हैं,स्वेटर बंटते ही अलग हो जायेंगे। एक दल स्वेटर वाला, एक बिना स्वेटर वाला। शिक्षक किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे।




रविवार, 30 मई 2010

धार्मिक कौन ?

धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए। उसमें निहित भाव क्या हैं - इस पर ध्यान देना जरूरी है। श्रीमद्भागवत पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है-दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याएं हुईं । इनमें से तेरह को उन्होंने धर्म से ब्याह दिया। धर्म की पत्नियों के नाम पर गौर कीजिये: श्रद्धा,मैत्री,दया,शान्ति,तुष्टि,पुष्टि,क्रिया,उन्नति,बुद्धि,मेधा,तितिक्षा,ह्री(लज्जा) और मूर्ति। हम पुराणोंकी बातों को बकवास मानते हुए भले ही दक्ष प्रजापति , उनकी कन्यायों और उन तेरह कन्याओं के पति धर्म के अस्तित्व को नकार दें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि वास्तविक धर्म ( हिन्दू,मुस्लिम.सिख,ईसाई आदि नहीं ) से इन तेरह गुणों की युति सर्वथा उपयुक्त है। अब आगे देखिये धर्म ने इन तेरह पत्नियों से कौन कौन से पुत्र उत्पन्न किये। श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए।

अपने सीमित ज्ञान से मैं तो इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं ,वह धार्मिक कहा जा सकता है, मंदिर में घंटियाँ बजाने वाला,पांच वक्त की नमाज अदा करने वाला या गुरुद्वारे में मत्था टेकने वाला नहीं.

गुरुवार, 27 मई 2010

मंगल नाथ और दही भात

दही - भात के लेप से श्रृंगारित मंगलनाथ



मैं ज्योतिष का ज्ञाता नहीं हूँ लेकिन इतना जानता हूँ कि भारतीय ज्योतिष में 'मंगल' को क्रूर ग्रह माना जाता है। मैं नहीं जानता कि जिसका नाम मंगल है वह अमंगल कैसे कर सकता है ? लेकिन ज्योतिष विज्ञान के अनुसार कुण्डली के बारह भावों में से पांच (१,४,७,८और १२) में मंगल का वास अशुभ है।संभावना के सिद्धांत (Theory of Probability) के अनुसार गणित के ज्ञाता बता सकते हैं कि मंगल के अनिष्टकारी होने की क्या संभावना बनती है ।

मंगली लड़के या लडकी की शादी होने में भी मंगल का भय अड़चन डालता है। इसके अतिरिक्त परिवार से मतभेद, आर्थिक हानि, नौकरी या व्यवसाय का स्थिर न रह पाना आदि भी मंगल-दोष के अंतर्गत बताये जाते हैं। इन्हीं दोषों के निराकरण के लिये लोग महाकाल की नगरी उज्जैन जाते हैं। उज्जैन स्थित मंगल नाथ का मंदिर मंगल दोष निवारण का स्थल है। वहाँ पुजारी दही- भात के लेप से मंगल की शान्ति करते हैं।दही भात से क्या मंगल की उग्रता कम हो जाती है ? पता नहीं। इसे आप अपने विवेकानुसार आस्था या अंधविश्वास कह सकते हैं.

रविवार, 23 मई 2010

देवबंद के फतवे में बुराई मत ढूंढिए

पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद के एक फतवे की बड़ी आलोचना हुई जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम महिलाएं पुरुषों के साथ नौकरी न करें। उसके बाद एक अन्य फतवा भी आया था कि यदि किसी स्थिति में ऐसी नौकरी करनी ही पड़े तो पुरुषों से घुलें मिलें नहीं। देवबंद के इन फतवों के शोर में इसी प्रकार की उड़ीसा महिला कल्याण परिषद की सलाह जो सभी धर्म की महिलाओं के लिये है,पर लोगों का ध्यान शायद नहीं गया। इस सलाह में कहा गया है कि महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से अधिक निकटता नहीं बनाएं। ऐसा उड़ीसा महिला कल्याण परिषद् को इस लिये कहना पड़ा क्योंकि एक पुरुष ने अपनी महिला सहकर्मी मित्र का अश्लील एम एम एस बना दिया।


हम भले ही जाति भेद, रंग भेद, वर्ण भेद आदि को न मानें,लिंग भेद को तो मानना ही पडेगा। प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की शारीरिक बनावट में ही नहीं भावना के स्तर पर भी भेद किया है। महिलाएं सामान्यतः पुरुषों की अपेक्षा अधिक सम्वेदनशील और भावुक होती हैं। प्रकृति ने महिला को जननी बना कर एक विशेष दर्जा दिया है। इसी लिये वह शिशु का लालन पालन करने के लिये प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। पुरुष इस मामले में उसकी बराबरी नहीं कर सकता। अतः महिला की प्राथमिकता शिशु का लालन पालन होना चाहिए, जीविकोपार्जन नहीं। जीविकोपार्जन और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी पुरुषों को ही लेनी चाहिए।


लेकिन समस्या यह है कि यदि महिलाएं शिशु के लालन पालन के बहाने चहारदीवारी में ही कैद रहीं तो आवश्यकता पड़ने पर भी वे जीविकोपार्जन हेतु आगे नहीं आ पायेंगी, क्योंकि उन्हें बाहर के माहौल का अभ्यास नहीं होगा। इस लिये महिलाओं का भी पुरुषों की तरह बाहर निकलना जरूरी है ताकि वे उस वातावरण की अभ्यस्त हो सकें,जहां उन्हें पुरुषों के साथ मिल कर काम करना है। अर्थात देवबंद का वह फतवा व्यवहारिक नहीं है, जिसमें औरतों को पुरुषों के साथ कम करने की इजाज़त नहीं दी गयी है ।


अब दूसरे फतवे की बात करते हैं जिसमें कार्यस्थल पर पुरुषों से घुलने मिलने की इजाज़त नहीं दी गयी है। यदि इसे देवबंद की धार्मिक कट्टरता मानी जाए तो उड़ीसा महिला कल्याण आयोग की सलाह को क्या कहेंगे ? जहां तक मेरी जानकारी है कम्पनियां भी पुरुषों और महिलाओं के कार्य में थोड़ा बहुत भेद करती हैं। ज्यादातर ध्यान रखा जाता है कि महिलाओं को रात की ड्यूटी न करनी पड़े और करनी भी पड़े तो उनके घर पहुँचने की पुख्ता व्यवस्था हो सके। अर्थात कम्पनियां भी पुरुषों और स्त्रियों के बीच एक दूरी बना कर चलती हैं।

वास्तव में तमाम स्त्री पुरुष समानता के दावों के बावजूद हमारा समाज अभी तक इस समानता को प्राप्त नहीं कर पाया है।आज भी संसद में पहुँचने के लिये महिलाओं को आरक्षण की जरूरत पड़ती है। अतः जरूरी है कि कार्यस्थल पर महिलायें पुरुषों से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखें.