मकर संक्रांति का त्यौहार मुझे अपने बचपन की याद दिला देता है। मैं ही नहीं, वे सभी कूर्मांचाली जिनका बचपन कूर्मांचल में बीता है "काले कौव्वा" की इस "नराई" (नोस्टालजिया) से बच नहीं सकते। "काले कौव्वा " मनाने वाले मेरे दिन अल्मोड़ा में गुजरे। "काले कौव्वा " पर अपनी अपनी माला पहने हम सभी बच्चे सुबह-सुबह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते थे-
"काले कौव्वा , काले
घुघूती कि माला खाले
ले कौव्वा बडौ, मकें दे सुनो को घडौ
ले कौव्वा पूरी , मकें दे सुनै की छूरी
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ले कौव्वा बेथुलो
भोल बै आले तेर थोल थेचुलौ"
[काले कौवे, मेरी यह घुघूती (एक चिड़िया) आदि से बनी माला खा ले। कौवे तू ये बड़ा ले जा और बदले में मुझे सोने का घड़ा दे जा। तू पूड़ी ले जा और मुझे बदले में सोने की छुरी दे जा। ]
और अंत में कहा जाता था कौवा ये बथुवा ले जा और कल से आएगा तो तेरे होंठ कुचल देंगे।
इस त्यौहार पर बच्चों में एक विचित्र उत्साह होता था। संभवतः कूर्मांचल ही वह एकमात्र स्थान है जहां मकर संक्रांति का यह त्यौहार बच्चों के लिए एक आकर्षण लेकर आता है। आटे में गुड़ मिलाकर गूंथने के बाद उसकी विभिन्न आकृतियां (घुघूती, पूरी, तलवार, ढाल, लौंग का फूल, डमरू आदि) बनाई जाती हैं और उन्हें तेल अथवा घी में तलकर उसकी माला पिरोई जाती है। इस माला में फल (विशेषतः संतरा), खांड आदि भी पिरोये जाते हैं। दूसरे दिन सुबह ये माला पहनकर बच्चे कौवों को बुलाते हैं और उस दिन कौवों की अच्छी दावत होती है।
यहाँ प्रवास में भी मैं इस त्यौहार को मनाने का प्रयत्न करता हूँ किन्तु लाख कोशिश के बाद भी कौवा नहीं दिखाई देता। हो सकता है आने वाली पीढ़ी कौवे को भी 'ज़ू' में देखे!