बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

साहित्यकारों के उपनाम

साहित्यकारों और पत्रकारों द्वारा छद्म नाम या उपनाम से लेखन करना आम बात है. ब्लॉग जगत में भी बहुत से बन्धु छद्म नाम या उपनाम से लेखन कर रहे हैं .बालीवुड के अनेक सितारे भी अपने छद्म नाम से जाने जाते हैं.
विगत दिनों मैं महेश प्रकाश पुरोहित के ब्लॉग पर कन्हैया लाल नंदन की एक कविता पढ़ रहा था तो मुझे ध्यान आया कि उनका वास्तविक नाम कन्हैया लाल तिवारी है. इसी सन्दर्भ से यह भी लगा कि कुछ प्रमुख साहित्यकारों के उपनाम या छद्मनाम,जो मुझे ज्ञात हैं, ब्लोगर बंधुओं के बीच साझा किये जाएँ. इसी हेतु ,इस आशा के साथ कि इस सम्बन्ध में अन्य बन्धु भी ज्ञान वर्धन करवायेंगे यह प्रयास है -

वास्तविक नाम/ उपनाम

जय शंकर साहू/ प्रसाद

सूर्य कान्त त्रिपाठी/ निराला

गुसाईं दत्त पन्त/ सुमित्रानंदन पन्त

धनपत राय/ प्रेमचंद

रामधारी सिंह/ दिनकर

मुन्नन द्विवेदी/ शांतिप्रिय द्विवेदी

हरिप्रसाद द्विदेदी/ वियोगी हरि

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन/ अज्ञेय

वैद्यनाथ मिश्र/ नागार्जुन

हरिवंश राय/ बच्चन

रघुपति सहाय/ फिराक गोरखपुरी

धर्मवीर सक्सेना/ भारती

शिवमंगल सिंह/ सुमन

मदन मोहन गुगलानी/ मोहन राकेश

उपेन्द्रनाथ शर्मा/ अश्क

फणीश्वरनाथ/ रेणु

कैलाश सक्सेना/ कमलेश्वर

महेंद्र कुमारी/ मन्नू भंडारी

सरोजिनी मलिक/ सरोजिनी प्रीतम

गोपाल दास सक्सेना/ नीरज

रामरिख बंसल/ मनहर

श्रीराम वर्मा/ अमरकांत

गौरा पन्त/ शिवानी

रमेश चन्द्र मटियानी/ शैलेश मटियानी

सुदामा पांडे/ धूमिल

काशीनाथ उपाध्याय/ बेधड़क बनारसी

कृष्ण देव प्रसाद गौड़/ बेढब बनारसी

चन्द्र भूषण त्रिवेदी/ रमई काका

प्रभु लाल गर्ग/ काका हाथरसी

बालस्वरूप भटनागर/ राही

गंगा प्रसाद उनियाल/ विमल

रामेश्वर शुक्ल/ अंचल

उषा सक्सेना/ प्रियंवदा

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

खड़ी बोली कविता के जनक भारतेंदु नहीं, लोकरत्न पन्त 'गुमानी' थे

इस पोस्ट के माध्यम से मैं हिन्दी साहित्य के इतिहास में रुचि रखने वालों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँयह सर्वमान्य तथ्य माना जाता है कि खड़ी बोली में साहित्य रचना सर्व प्रथम भारतेंदु हरिश्चंद्र ने की थी भारतेंदु का जन्म १८५० में और मृत्यु ३५ वर्ष की अल्पायु में १८८५ में हुई थी। १८६८ में उन्होंने' कवि वचन सुधा' का प्रकाशन प्रारंभ किया। १८७३ में 'हरिश्चंद्र मैगजीन' प्रारंभ हुई। १८७३ में ही' वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति प्रकाशित हुई। सम्भवतः' कृष्ण चरित्र' (१८८३) उनका अन्तिम ग्रन्थ थाइस प्रकार खड़ी बोली में सतत लेखन कर उन्होंने हन्दी साहित्य के अंकुर को प्रस्फुटित होने का अवसर दिया और भविष्य के लिए मार्ग दर्शन किया । हिन्दी साहित्य में उनका योगदान अमूल्य है


अत्यन्त विनम्रता से मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि भरतेंदु को खड़ी बोली में साहित्य रचना का प्रवर्तक नहीं कहा जाना चाहिए। क्योंकि उनसे पहले कूर्मांचल के कवि ' गुमानी' खड़ी बोली में रचनाएँ कर चुके थे।



कवि 'गुमानी' का नाम पंडित लोकरत्न पन्त था। उनका जन्म १७९० में उत्तराखंड के उपराड़ा गाँव

में हुआ था और मृत्यु ५६ वर्ष की अवस्था में १८४६ में हुई। भारतेंदु के जन्म से चार वर्ष पूर्व ही वे निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे.उन्होंने हिन्दी, कुमाऊनी, नेपाली और संस्कृत में रचनाएँ की थीं। उनकी कुछ चतुष्पदियों में पहला पद हिन्दी में, दूसरा कुमाऊनी, तीसरा नेपाली और चौथा संस्कृत में होता था। चूंकि यह लेख हिन्दी से सम्बंधित है, मैं यहाँ उनकी कुछ हिन्दी रचनाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ -


दूर विलायत जल का रास्ता करा जहाज सवारी है


सारे हिन्दुस्तान भरे की धरती वश कर डारी है


और बड़े शाहों में सबमें धाक बड़ी कुछ भारी है


कहे गुमानी धन्य फिरंगी तेरी किस्मत न्यारी है


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हटो फिरंगी हटो यहाँ से छोडो भारत की ममता


संभव क्या यह हो सकता है होगी हम तुममें समता?


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विद्या की जो बढती होती, फूट ना होती राजन में।


हिन्दुस्तान असंभव होता, वश करना लख वर्षन में।


कहे गुमानी अंग्रेजन से, कर लो चाहे जो मन में।


धरती में नहिं वीर-वीरता तुम्हें दिखाता रण में।

गुमानी जी उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर में रहे थे। उस शहर का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है -

खासे कपड़े सोने के तो बने बनाये तोड़े लो

पश्मीने गजगाह चंवर वो भोट देश के घोडे लो

बड़े पान के बीड़े खासे बढ़के शाल दुशाले लो

कहै गुमानी नगदी है तो सभी चीज अल्मोड़े लो

उत्तराखंड के ही काशीपुर शहर में भी उन्होंने कुछ समय बिताया था. वे मजाकिया लहजे में काशीपुर और काशी की तुलना इस प्रकार करते हैं -

यहाँ ढेला नद्दी, उत बहत गंगा निकट में

यहाँ भोला मोटेश्वर,रहत विश्वेश्वर वहाँ

यहाँ सन्डे डंडे कर धर फिरें, सांड उत हैं

फर्क क्या है काशीपुर नगर काशी नगर में

इस तरह हम देखते हैं कि भारतेंदु के जन्म से चार वर्ष पूर्व स्वर्गवासी गुमानी जी ने खड़ी बोली में जम कर कविताई की. इस लिए गुमानी जी को ही खड़ी बोली कविता का जनक माना जाना चाहिए.















शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

दिल की बात

हिन्दी गद्य लेखन के शुरूआती दौर के लेखकों में एक महत्वपूर्ण नाम बाल कृष्ण भट्ट का है. भट्ट जी ने प्रेम की व्याख्या इन शब्दों में की है. -
"भक्ति,आदर,ममता,आनंद,वैराग्य,करुणा आदि जो भाव प्रतिक्षण मनुष्य के चित्त में उठा करते हैं,उन सबों के मूल तत्व को एक में मिला कर उसका इत्र निकाला जाय, तो उसे हम 'प्रेम' इस पवित्र नाम से पुकार सकेंगे"

प्रेम ही वेलेंटाइन डे का प्रमुख तत्व है. और प्रेम दिल से किया जाता है. इस लिए इस मौसम में 'दिल' की बात करना गैरमुनासिब न होगा.
वेलेंटाइन डे मनाने वाले दिल तो पहले ही ले दे चुके होते हैं.आज तो वे केवल याद दिलाते हैं कि हमारा दिल तुम्हारे पास और तुम्हारा दिल हमारे पास है.लेकिन वे जानते भी हैं या नहीं कि दिल होता क्या है. यदि नहीं तो जानिए-
बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो इक कतरा -ऐ- खूँ निकला

यदि हम वेलेंटाइन डे के माहौल में इन प्रेम करने वालों को कुछ नसीहत देना चाहें तो डर है कि लोग हमें बजरंगी न समझने लगें. फ़िर भी इनके भले के लिए शायर 'जौक' के शब्दों में इन्हें बता दें -
दिल को रफीक इश्क में अपना न समझ 'जौक'
टल जायेगा ये अपनी बला तुझ पै टाल के.

नसीहतों पर प्रेम के दीवानों ने कभी ध्यान नहीं दिया, लेकिन नसीहत देने वाले भी पीछे नहीं रहते. जफ़र साहेब की नसीहत की बानगी -
बाजारे मुहब्बत में न दिल बेच तू अपना
बिक जाता है साथ उसके जफ़र बेचने वाला.

बेचारे प्रेम दीवाने इन नसीहतों पर अमल नहीं कर पाते तो उनका दोष भी नहीं. वे बेचारे तो दिल से मजबूर हैं-
दिल की मजबूरी भी क्या शै है, कि दर से अपने
उसने सौ बार उठाया , तो मैं सौ बार आया.

उनका इस तरह सौ बार आने जाने के पीछे भी एक राज है. वे मानते हैं कि -
नज़र की राह से दिल में उतर के चल देना
ये रास्ता बहुत अच्छा है आने जाने का
.

अब इनको कौन समझाए कि बार बार बे आबरू हो कर भी , हो सकता है वे सामने वाले के दिल की थाह न ले पाये हों. लेकिन इन खूबसूरत चेहरों की हकीकत जफ़र साहेब ने तो जान ली –
गुल से नाजुक बदन उसका है लेकिन दोस्तो
ये गजब क्या है कि दिल पहलू में पत्थर सा बना

जफ़र साहेब भले ही अपने तजुर्बे से बरखुदारों को आगाह करते रहें , लेकिन इश्क के मारों का हाल तो आसी साहेब जानते हैं -
हमने पाला मुद्दतों पहलू में, हम कुछ भी नहीं
तुमने देखा एक नज़र और दिल तुम्हारा हो गया .

दिल तो मियाँ गालिब ने भी किसी को दिया. लेकिन वे कहना नहीं भूले -
दिल आपका, कि दिल में जो कुछ है आपका
दिल लीजिये, मगर मेरे अरमाँ निकाल के

ऐ मजनुओ ! इतने सारे ताजुर्बेकारों की बात न मानते हुए भी तुम इश्क के फेर में पड़े हो.लेकिन याद रखना और मानसिक रूप से तैयार रहना क्योंकि ऐसाभी होता है-
जो दिल में खुशी बन कर आए, वह दर्द बसा कर चले गए
जो शमा जलाने आए थे, वह शमा बुझा कर चले गए.

पक्के मजनू तो ऐसे शमा बुझा के जाने वालों से भी नाराज नहीं होते और दिल पर लगी चोट को सहते हुए अमजद हैदराबादी के शब्दों में कह उठते हैं -
दिल शाद नहीं तो नाशाद सही
लब पर नग्मा नहीं तो फरियाद सही
हमसे दामन छुड़ा कर जाने वाले
जा, जा, गर तू नहीं, तेरी याद सही.

यूँ यादों के सहारे जीने वाले शायद बड़ी तादाद में हैं.लेकिन इन यादों के सहारे जीने में भी.कितनी तकलीफ है,जफ़र साहेब बता रहे हैं -
इक हूक सी दिल में उठती है, इक दर्द सा दिल में होता है
हम रात को उठ कर रोते हैं जब सारा आलम सोता है.

यादों के सहारे जीना इतना आसान नहीं है. जब दिल उदास हो तो फ़िर कुछ भी अच्छा नहीं लगता -
दुनिया की महफिलों से घबडा गया हूँ यारब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का, जब दिल ही बुझ गया हो.

ऐसे ही असफल प्रेम के मारे कुछ दीवाने सोचने लगते हैं -
चहक है, महक है, रौनक है, नजारे सब कुछ
दिल में है दर्द तो बहारों से हमें क्या करना

इन्हीं गमों से घबरा कर मियां ग़ालिब गम सहने के लिए कई दिलों की तमन्ना कर उठे -
मेरी किस्मत में गम गर इतने थे
दिल भी यारब कई दिए होते.
ठीक ऐसी ही बात आबिद साहेब ने भी कही है -
गम दिए थे अगर मुहब्बत के
मुझको इक और दिल दिया होता.

गम सहने के लिए दिल चाहे जितने भी दिए हों,रातों की नींद तो हराम हो ही जाती है -
दिन भी गुजारना है, तड़प कर इसी तरह
सो जा दिले हजीं, कि बहुत रात हो गयी.

बहादुर शाह 'जफ़र' के दिल पर लगी चोट का मुलाहिजा फरमाइए -
मेरी आँख झपकी थी एक पल, कहा जी ने मुझसे कि उठ के चल
दिल-ऐ-बेकरार ने आन कर, मुझे चुटकी दे के जगा दिया.
न तो ताब है दिले जार में, न करार है गमे यार में
मुझे सोजे - इश्क ने आखिरश , यूँ ही मिस्ले शामअ घुला दिया
* * * * * * * * * * * * * * * * * * *
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे- नापाएदार में

दिल पर लगी यह चोट कभी कभी इतनी गहरी होती है कि आदमी जिन्दगी से ही बेजार हो जाता है -
अभी जिंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ यह दिल में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने
-साहिर लुधियानवी

इनसे एक कदम बढ़ कर -
है जनाजा इस लिए भारी मेरा
हसरतें दिल की लिए जाते हैं हम
-गोया

लेकिन दिल केवल देने - लेने या इश्क करने के लिए ही नहीं वरन दूसरों के दुःख - दर्द महसूस करने के लिए भी होता है -
गैर के गम पै भी इस दिल पर असर होता है
कोई रोता है तो दामाँ मेरा तर होता है
- जिगर मुरादाबादी

अंत में वेलेंटाइन डे के दीवाने नौजवानों से, वेलन्टाइन डे से कतई अनभिज्ञ उन नौजवानों के दिल की तमन्ना का जिक्र कर दूँ जिन्हें आज भी देश सलाम करता है -
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैदेखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है.

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

आगामी चुनाव हेतु मेरी भविष्यवाणी

लोक सभा चुनाव सन्निकट हैं. मई माह में नयी लोकसभा का गठन हो जायेगा.कौन जीतेगा कौन हारेगा इस की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता. हाँ एक भविष्यवाणी मैं अवश्य कर सकता हूँ, वह है चुनाव विश्लेषक और स्तम्भ लेखकों के सम्बन्ध में. वे लोग हमेशा की तरह अवश्य अलापेंगे कि मतदाता परिपक्व हो चुका है. अब मतदाता को बरगलाया नहीं जा सकता. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की वाहवाही की जायेगी.

हमारे बुद्धिजीवियों के इस आलाप पर मुझे ऐतराज है. आज भी मतदाता व्यक्ति की योग्यता के बजाय जाति, सम्प्रदाय, व्यक्तिगत स्वार्थ के आधार पर,नोट के बदले या डर कर वोट देता है. यदि ऐसा न होता तो राजनीतिक दल इन्हीं आधारों पर टिकट न बांटते. यदि ऐसा न होता तो मन मोहन सिंह चुनाव न हारते. यदि ऐसा न होता तो चुनाव के लिए ऐसे मुद्दों को न तलाशा जाता जो मतदाताओं को लुभा सकें. और यदि मतदाता लुभावे में आ जाता है तो वह परिपक्व कैसा ?

ठीक इसी तरह मुझे इस बात पर भी ऐतराज है कि दुनिया के सबसे बड़े इस लोकतंत्र को भी परिपक्व बताया जाता है. मैं समझता हूँ कि परिपक्व लोकतंत्र की यह निशानी नहीं है कि किसी विमान उड़ाते पायलट को नीचे उतार कर सीधे प्रधान मंत्री की गद्दी पर बिठा दिया जाय. किसी गृहणी को चूल्हे से उठा कर मुख्यमंत्री बना दिया जाए.हमारी लोक सभा के अनेकों सांसद अपने आचरण से यह प्रकट नहीं होने देते कि वे परिपक्व लोकतंत्र की लोक सभा के सांसद हैं. मैं समझता हूँ कि हमारा तंत्र लोक की चिंता ठीक प्रकार से नहीं कर रहा है इसलिए परिपक्व लोकतंत्र कहलाने का हकदार नहीं है. मैं कामना करता हूँ कि विश्व का सबसे बड़ा यह लोक तंत्र परिपक्व बने.