बुधवार, 31 दिसंबर 2008

प्रिये कहो ना..........

तुमने मेरे उर की सूनी वीणा को झंकृत कर डाला
तुमने मेरे मन की ऊसर बगिया को सिंचित कर डाला.
तुमने ही तो मुझ मूरख को सरस प्रेम का पाठ पढ़ाया
फ़िर क्यों छीन लिया मुझसे,तुमने यह प्याला, ओ मधुबाला.

मैं तो तट पर बैठा,सागर की लहरों को ही गिनता था
उन लहरों में खो कर मैं अपने प्रिय को देखा करता था
तुमने पार लगाने का कह, मुझको नैया पर बिठलाया
फ़िर क्यों आज डुबोया मुझको, मैं क्या तेरा अरि लगता था?

मैं डूबा हूँ, तुम उतराते, जाओ पैरो, पार लगो ना
मेरा तो अब ह्रास हुआ है, जाओ मुझसे दूर, बचो ना.
किंतु सोचता हूँ यह मन में, तुम सुख से रह पाओगे क्या?
पछताओगे नहीं कभी क्या, इस करनी पर प्रिये, कहो ना.

रविवार, 28 दिसंबर 2008

प्यार किया तो डरना क्या

(समापन किश्त)

प्यार और गुस्से का भी आपस में गहरा रिश्ता है. 'अमीर' मीनाई उसे इस तरह बयां करते हैं :
उनको आता है प्यार पर गुस्सा
हमको गुस्से पे प्यार आता है.

मियाँ गालिब इश्क पर चुप रहें ,ये हो ही नहीं सकता. बानगी देखिये :
इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश 'गालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने.

मधुशाला के कवि बच्चन जी ने अपने 'एकांत गीत' में कहा :
प्यार तो उसने किया है
प्यार को जिसने छिपाया.

और भी :
प्यार,हाय मानव जीवन की सबसे भारी दुर्बलता है
मेरा जोर नहीं चलता है.

सुदर्शन द्वारा लिखी गयी एक कहानी है- धर्मसूत्र. उसमें वे कहते हैं :
हम जिन्हें प्यार करते हैं उनके बारे में हमें प्रायः भयंकर आशंकाएं ही सताती हैं बेगानों के सम्बन्ध में ऐसे विचार हमारे मन में कभी नहीं आते.

प्रख्यात लेखक गोर्की के उपन्यास 'माँ' का एक वाक्य देखिये :
एक प्रेम ऐसा भी होता है जो मनुष्य के पैर की जंजीर बन जाता है.

कथाकार मार्कंडेय की एक कहानी है - प्रिया सैनी. उसमें वे कहते हैं :
प्रेम का कुछ ऐसा ही बेतुका मर्म है जिसे तर्क और समझ में नहीं बांधा जा सकता.

इस शेर में शायर ने प्रेम का इजहार करने के लिए प्रेयसी से ही मशविरा मांग लिया है. :
इस जज्बए दिल के बारे में ,इक मशविरा आप से लेता हूँ
उस वक्त मुझे क्या लाजिम है जब तुम पै मेरा दिल आ जाए.

डाक्टर भगत सिंह ने अपने शोध प्रबंध 'हिन्दी साहित्य को कूर्मांचल की देन' में प्रेम की व्याख्या कुछ इस तरह से की है :
प्रेम मानव जीवन में सबसे रहस्यमय व्यापार है शायद इसी लिए हजारों काव्य लिखे जा चुकने के बाद भी यह विषय सदैव नया रहता है. साहित्यकार और पाठक दोनों ही इससे नहीं अघाते हैं.वास्तव में प्रेम की दुनिया इतनी विचित्र है, उसका उद्गम और अंत इतना रहस्यमय है कि संसार के महान साहित्यकार भी उसकी पूरी व्याख्या तथा चित्रण नहीं कर पाये हैं.

आवारा मसीहा में विष्णु प्रभाकर प्रेम के प्रतिदान या प्रेम की सफलता को महत्वपूर्ण नहीं मानते.वे प्रेम में समर्पण के महत्व को इस तरह इंगित करते हैं :
क्या एकतरफा प्रेम कम शक्तिशाली होता है ? प्रत्युत्तर न मिलने पर भी क्या प्रेम अपने आप में मधुर नहीं होता ?प्रेम में सफलता ही उसके होने का प्रमाण नहीं है.मन ही मन किसी के लिए अपने को विसर्जित किया जा सकता है.

यशपाल की सुनिए :
अच्छे समझे जाने या प्यार पाने के विश्वास से मस्तिष्क में एक सरूर छा जाता है.

और अब हिन्दी - उर्दू के लोकप्रिय कथाकार कृशन चंदर की रचनाओं से प्रेम के बारे में कहे गए कुछ अंश :

प्रेम की भावना पानी के प्रवाह की तरह होती है.प्रेम को रास्ता दे दो तो वह समाज के खेतों में जज्ब हो जाता है और बच्चों की फसल पैदा करने के काम आता है.रास्ता न दो और बाँध बना कर रोक दो तो पानी की तरह इकठ्ठा हो कर उमड़ता है और बिजली पैदा करता है - वह बिजली जो कभी तो प्रेम करने वालों के घर को ज्योतिर्मय कर देती है और कभी उन्हें जला कर राख कर देती है.(कहानी : आओ मर जाएँ)

शादी के बाद झगड़े इस लिए ज्यादा होते हैं कि दोनों मोटे शीशे के चश्मे लगा कर एक - दूसरे को देखने लगते हैं. थोड़ी सी दूरी रहे, हल्के से प्रेम का धुंधलका रहे तो प्रेम वर्षों सलामत रहता है. निकटता आयी नहीं कि प्रेम गायब.
(आधा रास्ता : उपन्यास)

जब प्रेम ख़त्म हो जाता है तो बदला बेकार हो जाता है. बदला लेने की इच्छा प्रकट करती है कि कहीं पर मोहब्बत की चुभन बाकी है. (आधा रास्ता)

कबीले के प्रेम का एक सिद्धांत था. फ़िर सामंतशाही प्रेम का एक सिद्धांत था और वह कबीले के प्रेम के सिद्धांत से भिन्न था.फ़िर जाति - पाँति के प्रेम का एक नया सिद्धांत बना. आगे शायद इन्सानियत का ज़माना आए जहाँ इससे भी अच्छे प्रकार के पेम का सिद्धांत बनाया जाए. (एक वायलिन समंदर के किनारे : उपन्यास)

अंत में कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए समाप्त करता हूँ :
कितने भी गहरे रहें गर्त
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे ह्युए को उठा सके
इस से प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा न पाये जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

प्यार किया तो डरना क्या

आज कुछ प्यार मोहब्बत की बातें - किसी शायर ने कहा भी है :
इश्क के मकतब में मेरी आज बिस्मिल्लाह है
मुंह से कहता हूँ अलिफ़, दिल से निकलती आह है.

और शायद इसी प्यार मोहब्बत का मारा कोई शायर कहता है :
नासह मत दे नसीहत जी मेरा घबराय है
मैं उसे समझूं हूँ दुश्मन जो मुझे समझाय है.

तारा शंकर बंदोपाध्याय अपने उपन्यास महाश्वेता में प्रेम के बारे में कहते हैं :
श्रद्धा प्रेम है,स्नेह भी प्रेम है और प्रेम भी प्रेम है.

स्त्री की चाहत के बारे में इला चन्द्र जोशी ने कुछ यों लिखा है :
नारी का मन ऐसा रहस्यमय है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में वह समझती है कि वह उससे घृणा करती है, अक्सर उसी को वह अंतस्तल में सबसे अधिक चाहती है.

उधर बेधड़क बनारसी प्यार में कुछ इस तरह तड़पते हैं :
प्रेयसी,चाँद यदि तुम बनोगी, दिल अपोलो बनेगा हमारा
हम गरीबों ने है यह पुकारा , नेशन्लाइजेशन हो हुस्न सारा

प्यार में आहत हो किसी शायर ने यों कहा :
नजर की राह से दिल में उतर के चल देना
यह रास्ता बहुत अच्छा है आने जाने का

मोहब्बत करने वाले की दशा पर शेख गुलाम हमदानी 'मुसहफी' ने कहा :
कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूं के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं

आगा जान 'ऐश' मानते हैं कि इश्क छुपाया नहीं जा सकता :
इश्क और मुश्क छुपाये से कहीं छुपता है
दर्दे दिल लाख छुपाया पे छुपाया न गया

शायर अकीन इश्क को लाइलाज मानते हैं :
काबे भी मैं गया, न गया बुतों का इश्क
इस मर्ज की खुदा के घर में भी दवा नहीं

शेफ्ता मोहब्बत की परिभाषा यों देते हैं :
शायद इसी का नाम मोहब्बत है ' शेफ्ता '
इक आग सी है सीने के अन्दर लगी हुई ।
(क्रमशः)

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

कहानी

मुआवजा
(अन्तिम कड़ी)

शहर का माहौल उन दिनों असमंजसपूर्ण चल रहा था.हादसे में मरने वालों की संख्या रेडियो जहाँ हजार - डेढ़ हजार बता रहा था वहीं समाचार पत्र पाँच से दस हजार के बीच बताते थे.हरी सिंह और देबुली अपने को भाग्यशाली समझते थे कि वे लोग न तो मरे और न अत्यधिक गंभीर रूप से बीमार हुए.इंदर अलबत्ता कुछ ज्यादा परेशान हुआ था और उसे उल्टी भी हुई थी, लेकिन जहाँ हजारों लोग मर गए हों,असंख्य उल्टी और आँखों की जलन के शिकार हो गए हों,वहाँ इतनी छोटी सी तखलीफ़ से छुट्टी मिल जाना खुशकिस्मती ही थी. लेकिन स्वयं इंदर इतना घबरा गया था कि जब 'आपरेशन फेथ' के दौरान हरी सिंह सपरिवार भोपाल छोड़ कर अपने गाँव तक हो आया तो इंदर ने अपनी चाची के दुर्व्यवहार के बावजूद उन्हीं के पास रहने की इच्छा प्रकट की और हरी सिंह इंदर को काफलीगैर ही छोड़ आया.

हरी सिंह जब कभी सपरिवार अपने गाँव जाता तो बचे नाथ को अपने क्वार्टर की जिम्मेदारी सौंप जाता.लेकिन इस बार तो बचे नाथ क्या कोई भी आस पड़ोस में नहीं बचा था.सभी अपने अपने परिचितों - सम्बन्धियों के पास जा चुके थे.इस लिए हरी सिंह जितने दिन अपने गाँव रहा उसे यही चिंता सताती रही कि कहीं उसके क्वार्टर का ताला टूट न जाए और वर्षों की मेहनत से जमी गृहस्थी, जिसमें एक सोफा, गैसचूल्हा,कुकर,एक रेडियो,अलमारी और कुछ स्टील के बर्तन थे,उजड़ न जाए. लेकिन जब लौटने पर उन्हें अपनी गृहस्थी सही सलामत मिली तो हरी सिंह और देबुली ने ईश्वर को धन्यवाद दिया. देबुली ने तो गुफा मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने का संकल्प भी कर लिया.

दिन बीतते गए. गैस काण्ड की चर्चा तो होती रहती लेकिन लोगों के दिल से सदमा उतरने लगा था. इधर सरकार ने राहत देने की कवायद शुरू कर दी.मुफ्त राशन दिया जाने लगा.जब पहले महीने हरी सिंह मुफ्त राशन लाया तो देबुली की खुशी का ठिकाना न था और साल के अंत में जब राशन मिलना बंद हुआ तो मायूस हुई थी वह, लेकिन उसने हिसाब लगा लिया था कि अगले तीन - चार महीने और वह जमा राशन से काम चला लेगी. देबुली की खुशी तब और बढ़ी जब शासन की तरफ़ से पन्द्रह सौ रुपये राहत राशि की घोषणा की गयी. इस बीच मुआवजे हेतु क्लेम फॉर्म भरे जाने लगे और जब हरी सिंह पन्द्रह हजार रूपये का क्लेम भर कर आया तो देबुली ने उसकी मोटी बुद्धि पर खूब लानत भेजी. पड़ौसी लोग पचास हज़ार और एक लाख तक का क्लेम लगा आए थे और एक हरी सिंह था कि पन्द्रह हज़ार पर संतोष कर रहा था.

पन्द्रह सौ रूपये भी हरी सिंह को अब तक नहीं मिल पाये थे. इस कारण भी देबुली हरी सिंह से रुष्ट थी.वास्तव में गलती हरी सिंह की ही थी. जब सर्वे हो रहा था तो हरी सिंह ने अपनी आय सात सौ पिचहत्तर रुपये लिखवा दी थी जो उसकी वास्तविक आय थी,जबकि राहत पाने के लिए आय पाँच सौ रूपये होनी चाहिए थी. अंत में इसका भी निराकरण हो गया. देबुली ने ही ख़बर दी -'पन्द्रह सौ रूपये के लिए पुतली घर में फ़िर से नंबर लग रहे हैं बल.जाओ, छुट्टी ले कर नंबर लगा आओ. हाँ इस बार राजा हरिश्चंद्र मत बन जाना. और जब हरी सिंह के पास पन्द्रह सौ रूपये की पर्ची आ गयी तो देबुली ने इसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रसाद माना.

जब पन्द्रह सौ रूपये प्राप्त करना देबुली के दिमाग की उपज थी तो उसका उपयोग करने के लिए भी वह स्वतंत्र थी. बहुत दिनों से देबुली की इच्छा एक टी वी लेने की थी, लेकिन पैसों का जुगाड़ नहीं बन पाता था. अंततः गैस देवी की कृपा से हरी सिंह ने एक टी वी खरीद ही लिया. बुधवार को टी वी आया था और आज सेकंड सेटरडे था. हरी सिंह और देबुली बड़ी प्रसन्नता से टी वी में दिन का कार्यक्रम देख रहे थे. इसी समय तारवाला एक टेलीग्राम दे गया. तार काफलीगैर से था - इंदर की मौत का.

भोपाल से जाने के बाद से ही इंदर सहमा सा रहता . थका - थका बीमार सा रहता. यद्यपि प्रकट में ज्वर आदि नहीं रहता.गाँव में कभी कभार वैद्य जी से दवा ले लेता. एक - दो बार झाड़ फूंक भी की. लेकिन सब व्यर्थ. इंदर बच न सका. हरी सिंह गहरे सोच में डूब गए - कहीं गैस का ही असर तो नहीं ? कहीं हम लोग भी अन्दर से खोखले तो नहीं होते जा रहे ?

रात हुयी . हरी सिंह को नींद नहीं आ रही थी. देबुली को भी. हरी सिंह का दुःख गहराता जा रहा था. देबुली हरी सिंह की दशा देख कर कुछ बोलने का साहस न जुटा पायी,लेकिन सोच रही थी - इंदर को भी गैस लगी थी, कुछ लिखा - पढी करके इंदर का मुआवजा नहीं मिल सकेगा क्या ?

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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

कहानी

मुआवजा
(तीसरी कड़ी)

दूसरे दिन सुबह बचे नाथ ने ख़बर दी कि एक बुढ़िया रात के हादसे में मरी है. हरी सिंह ने अनुमान लगाया - एक की ख़बर है, पाँच - सात और भी मरे होंगे. कालोनी के सभी लोग इकठ्ठा हो रात की ही चर्चा कर अपने अपने अनुभव बता रहे थे. कुछ ही देर में जहांगीराबाद से गुमानीराम, श्यामला हिल से गणेशी लाल और टी टी नगर से जोशी जी आदि सभी आ आ कर हरी सिंह की कुशल क्षेम ले गए. इन्हीं लोगों से मालूम पड़ा कि पाँच - सात सौ से कम आदमी नहीं मरे.हमीदिया अस्पताल में लाशों के ढेर और मरीजों की भीड़ लगी है. छोला में रहने वाले टीकाराम जी का पूरा परिवार भारती है. इंदर भी यह सब सुन रहा था. उसे दुःख था तो केवल इस बात का कि अब फेक्ट्री में शायद उसकी नौकरी न लग पाये.'स्साली किस्मत ही ऐसी है'-उसने सोचा.

बचे नाथ और हरी सिंह दोनों ही हमीदिया अस्पताल की ओर चल पड़े. सोचा टीकारामजी के परिवार की कुशल ले आयें.अस्पताल में ऐसा लग रहा था जैसे बागेश्वर के उत्तरायणी का मेला हो.नीचे सड़क तक टेंट लगे थे और आंखों में दवा डाली जा रही थी.प्रत्येक टेंट में मरीजों की भयंकर भीड़ थी.पैदल,किसी का सहारा लिए, ताँगे में,मेटाडोर में भरकर और अन्य विभिन्न साधनों से गैस से बेहाल हुए लोग लाये जा रहे थे. वार्डों के भीतर पलंग पर और जमीन पर तो मरीज भरे ही थे,बाहर खुले में भी बेसुध कराह रहे लोगों की भरमार थी. कईयों को देख कर तो लग रहा था - अब मरे तब मरे. कुछ लोग लाश घर की ओर से आ रहे थे. उनमें से एक बोला-सात सौ तिरपन. रात कितनी बड़ी दुर्घटना हो गयी इसका अंदाजा बचे नाथ और हरी सिंह को अब हो रहा था. टीका राम जी के परिवार को इन हजारों की भीड़ में ढूंढ पाना असंभव था.निराश हो दोनों लौट आए. लौटने पर सबसे पहले दोनों के ही दिमाग में जो बात सबसे पहले आयी वह थी अपने अपने गाँव सूचना देने की. दोनों ही तार घर की ओर बढे.वहां जो भीड़ थी उसमें चार घंटे तक नंबर आने की कोई संभावना नहीं थी.चलो हमीदिया रोड के तारघर से तार कर लेंगे – उन्होंने सोचा.वहाँ पहुँचने पर भी भीड़ का वही आलम था. फ़िर भी दोनों ही लाइन में लग कर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे. अचानक कुछ लोग भागते नजर आए.गैस फ़िर लीक हो गयी - कोई बोला.तारघर की सारी भीड़ और तार बाबू भी भागने वालों में शामिल हो गए. बचे नाथ और हरी सिंह भी भागने लगे.दोनों ही अपने अपने बीबी बच्चों की चिंता से उद्विग्न हुए जा रहे थे.भागते हुए जब तक घर पहुंचे, दोनों ने ही अपने अपने घरों पर ताले लटके देखे.आस पास के सारे घर सूने थे. कहाँ जाएँ परिजनों को ढूँढने वे ? हार कर दोनों हरी सिंह के घर के बंद दरवाजे पर पीठ टिका कर बैठ गए. दोनों ही परेशान हो उठे थे और शंका-कुशंका से घिरे थे. इधर लाउड स्पीकर से घोषणा की जाने लगी थी -'घबराएं नहीं, निश्चिंत रहें, अपने-अपने घरों को वापस जाएँ.अब किसी प्रकार का गैस रिसाव नहीं हुआ है.

वास्तव में फ़िर से गैस फैलने की अफवाह फ़ैल गयी थी और रात की घटना से भयभीत लोग अपने अपने घर छोड़ भाग उठे थे.कुछ देर बाद लोग अपने घरों को लौटने लगे. हरी सिंह और बचे नाथ का परिवार भी लौट आया था.इंदर खासा घबरा गया था. पहाडों की शांत और बेफिक्र जिन्दगी जीने वाला वह किशोर पहली बार शहर आया था और आते ही उसे ऐसा कटु अनुभव हुआ कि वह बुरी तरह विचलित हो गया.

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

कहानी



मुआवजा

रात के डेढ़ - दो बजे, जब इंदर गहरी नींद में सो रहा था और सोते हुए मुस्कुरा रहा था (शायद वह यूनियन कार्बाइड में अपनी नौकरी लग जाने पर मिलने वाली खुशी के सपने देख रहा था ) ,हरी सिंह की नींद दरवाजे में पड़ी जोरदार थापों और बचे नाथ की आवाज़ - हरदा ,अबे हरदा उठ ; बोजी,ओ बोजी की आवाज़ से बमुश्किल टूटी.उसने बेखबर सोयी देबुली को जगा कर सचेत किया और लाइट जला कर दरवाजा खोलने को बढ़ा.'बचे नाथ की बीबी को पीड़ उठने लगी है शायद ' हरी सिंह ने सोचा. उसे नौवां महीना चल रहा था.
दरवाजा खोलने पर पता चला बचे नाथ के साथ छोटेलाल भी खडा था . 'जल्दी से अपना सिलेंडर चैक कर' बचे नाथ बिना किसी भूमिका के खांसते खांसते हड़बड़ाये स्वर में बोला.दरवाजा खोलते ही गैस का एक भभका सा हरी सिंह ने भी महसूस किया.गैस लीकेज की आशंका से मन ही मन देबुली को गाली देते हुए वह गैस सिलेंडर की ओर बढ़ा. सिलेंडर ऑफ़ था.चूल्हे की नॉब भी बंद थी.उसने राहत की साँस ली.'यार बचदा गैस तो बंद है लेकिन स्साली बास आ रही है.'वह बोला. अब तक छोटे लाल और बचे नाथ कालोनी के सभी क्वार्टरों के सिलेंडर चैक करा चुके थे.उनकी आँखों से बेतहाशा पानी आ रहा था और जलन हो रही थी.तभी सायरन की तेज आवाज सुनाई दी. 'ओ हो यूनियन कार्बाइड में फ़िर आग लग गयी होगी.'छोटेलाल ने कहा.पहले भी वहाँ एक - दो दुर्घटनाएं हो चुकी थीं.कोई तेजाब का टैंक जल गया होगा उसी की गैस फ़ैल गयी है- हरी सिंह ने अनुमान लगाया. इसी बीच आस पास सड़क पर दौड़ने-भागने-खाँसने की आवाजें आने लगीं. बहुत से लोग शायद सड़क पर निकल आए थे. छोटेलाल खाँसते खाँसते अपने क्वार्टर की तरफ बढ़ा.देबुली ने बचे नाथ और हरी सिंह को भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर लिया.दरवाजा खोलने से गैस का तीखापन कमरे में घुस आया था और बचे नाथ,हरी सिंह,देबुली सभी दम घुटा सा महसूस करने लगे. इंदर भी उठ चुका था. खाँस खाँस कर उसके बुरे हाल थे. आख़िर उल्टी हो जाने पर ही उसे राहत मिली. उस ठण्ड में हरी सिंह ने पंखा फुल पर चला दिया. बचे नाथ और हरी सिंह किन्कर्तव्यविमूढ़ से मंत्रणा कर रहे थे - बाहर जाएँ या न जाएँ. कहीं कमरे में ही दम न घुट जाए. अंत में दोनों ने तय किया कि बाहर जाने से बेहतर भगवान भरोसे रह कर बच्चों के साथ अपने अपने क्वार्टरों में ही रहा जाए. बचे नाथ ने अपने क्वार्टर जाना चाहा. हरी सिंह ने बचे नाथ के लिए दरवाजा खोला तो इस बार गैस का भभका कम मालूम पड़ा. थोड़ी देर में बाहर कुछ लोगों की चर्चा से आभास हुआ कि गैस का असर कम हो चुका है.हरी सिंह ने खिड़की - दरवाज़े खोल दिए. दिसम्बर की उस ठण्ड की रात में उन्हें हवा के झोंकों और फुल पर चल रहे पंखे से राहत महसूस हुई.(क्रमशः)

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

कहानी

(-३दिसम्बर ८४ की रात, उस समय भोपाल शहर में रहने वाले कभी नहीं भूल सकते. प्रस्तुत है उसी घटना को आधार बना कर ८५ - ८६ में लिखी यह कहानी)




मुआवजा










हरी सिंह जितनी गहरी नींद सोता था,उसकी पत्नी देबुली की नींद उससे अधिक गहरी होती थी. ठण्ड की उस रात दोनों ही निश्चिंत हो गहरी नीद में थे . पास ही भांजा इंदर भी उसी बेफिक्री से सो रहा था .पाँच दिन पहले ही आया था इंदर अपने गाँव काफलीगैर से . हरी सिंह को आशा थी कि वह इंदर को कहीं कहीं नौकरी से चिपका देने में सफल हो जायेगा .अनाथ इंदर की अपने गाँव में अपने ही चाचा के यहाँ दुर्गत हो रही थी . इसी लिए उसने इंदर को अपने पास भोपाल बुला लिया था .

इंदर जीवन में पहली बार अपने गाँव से बाहर आया था .आश्चर्य-विस्फरित थे उसके नेत्र एक नयी दुनिया देख कर .मात्र दो पटरियों पर इतनी बड़ी रेलगाडी को चलते देखना एक अचम्भा था . मीलों लंबे खेत भी उसने पहली बार देखे थे . वह मनसूबे बनाने लगा था - जब गाँव लौटेगा तो अपने दोस्त रमुआ और शेरुआ से किस प्रकार अपने अनुभव बांटेगा .





इंदर को वर्षों बाद देख कर हरी सिंह खुश ही हुआ था. हरी सिंह की घरवाली देबुली अलबत्ता मन में विचार करने लगी थी कि अब इंदर का भार हम पर गया क्योंकि इंदर का छोटा मामा तो गाँव की छोटी सी खेती और छोटी - मोटी मजदूरी पर निर्भर था और कमाई से ज्यादा पी जाता था . उससे इंदर का दायित्व संभालने की अपेक्षा करना मूर्खता थी .




इन पाँच दिनों में इंदर ने भोपाल के तीन स्थान देख पाये थे - मामी के साथ गुफा मन्दिर, पड़ोसी बचे नाथ के लड़के सुरेन्द्र के साथ बड़ा तालाब और खड़क सिंह के साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री.खड़क सिंह यूनियन कार्बाइड में ड्रायवर था और उसने इंदर को फैक्ट्री में डेली वेजेज में लगाने का आश्वासन दे दिया था. फैक्ट्री देखने के बाद इंदर के मन में अजीब सी गुदगुदी हुई थी.वह सोचने लगा नौकरी में लगने के बाद वह जल्दी ही छुट्टी लेकर अपने गाँव जायेगा और रमुआ और शेरुआ को दिखा देगा कि वह क्या से क्या हो गया है. चाचा - चाची यद्यपि उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे, लेकिन गाँव जाने की कल्पना में वह उनके प्रति सारी दुर्भावना भुला चुका था और कका के लिए कुरता - पायजामा और चाची के लिए लाल फूलों के प्रिंट वाली साड़ी ले जाने के मनसूबे बनाने लगा था. लेकिन कका की छोटी लडकी रूपा के लिए वह क्या ले जायेगा - यह निश्चय नहीं कर पा रहा था.उस रात यही सब सोचते वह सोया था और रात भर सपने में भी वह कभी अपने को कार्बाइड की बड़ी - बड़ी टंकियों के पास खडा पाता, कभी . ट्रेन में साफ़ सुथरे पैंट - कमीज पहने आंखों में धूप का चश्मा लगाए वापस गाँव जाता हुआ और कभी गाँव में रमुआ - शेरुआ के बीच अपने अनुभवों की डींग हांकता. (क्रमशः)