सोमवार, 30 अगस्त 2010

पुस्तक - एक शानदार उपहार

बड़ी  बेटी  का फोन आया |अभिवादन और आशीष के बीच उसे शायद मोबाइल में कुछ बाहरी आवाजें सुनाई दीं | कहाँ हैं ? क्या कर रहे हैं ?- वह बोली |
स्टोर  में हूँ और छोटी ( बेटी ) के लिये बर्थ डे गिफ्ट  खरीद रहा हूँ -  मैंने उत्तर दिया |
क्या खरीद रहे हैं ? - उसने पूछा |
तुम बताओ - मैंने कहा |
आप बुक स्टोर  में हैं और छोटी के लिये किताब खरीद रहे हैं - बड़ी बेटी का सही अनुमान था |

मुझे ध्यान आता है कि मैंने अपने बच्चों  के जन्म दिन पर अधिकतर  पुस्तकें ही भेंट की हैं |.अपने कुछ मित्रों को भी जन्मदिन पर पुस्तक भेंट करना ही मुझे उपयुक्त लगा | मैं तो शादी ब्याह के निमंत्रणों  पर भी पुस्तकें भेंट करना चाहता हूँ , लेकिन पत्नी के विरोध के कारण ऐसा नहीं करता |  मेरा विचार है भेंट स्वरूप पुस्तकें देना एक अच्छा विकल्प है | आज शायद पुस्तकों के प्रति हमारा मोह कम होता जा रहा है | एक कारण पुस्तकों का मूल्य अधिक होना भी है | लेकिन मूल्य ही एकमात्र कारण नहीं है | हम आउटिंग  में, मनोरंजन में, डेकोरेशन में दिल खोल कर खर्च कर सकते हैं, तो पुस्तकों पर क्यों नहीं ? मुझे साठ का वह दशक याद आ रहा है, जब हिन्दी में अनेक स्तरीय  पत्रिकाएँ  थीं | हिंद पाकेट बुक्स ने घरेलू लायब्रेरी योजना शुरू की थी , जिसमें दस  रुपये     प्रति माह में बिना डाक खर्च के स्तरीय पुस्तकें प्राप्त कर आप घर पर ही  एक छोटी मोटी लायब्रेरी बना सकते थे| मधुशाला, उमर खैयाम की  रुबाइयां, शरतचंद्र और प्रेम चन्द्र के उपन्यास, कृशन  चंदर की एक गधे की आत्म कथा, एक वायलन समंदर के किनारे आदि अनेक स्तरीय कृतियाँ  हमने इसी घरेलू लायब्रेरी योजना के तहत पढी थीं |  आज संभवतः कोई प्रकाशक इस प्रकार की योजना नहीं चलाता है | संभवतः प्रकाशकों का ध्यान सीधे पाठकों की ओर न हो कर सरकारी खरीद  की ओर अधिक है, जिसके कारण पुस्तकों  का मूल्य उन्हें अधिक रखना पड़ता है ताकि दिए जाने वाले कमीशन की भरपाई हो जाए | जहां कमीशन न देना पड़े वहाँ डिस्काउंट  दे सकते हैं |

 घरेलू लायब्रेरी योजना जैसी योजना चलाना या पुस्तकों का मूल्य कम करना तो हमारे नियंत्रण में नहीं | लेकिन एक दूसरे को पुस्तकें उपहार स्वरूप देकर हम पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहयोगी बन सकते हैं |