सोमवार, 28 सितंबर 2009

दुर्गोत्सव से जुड़ी बुराइयाँ

दुर्गोत्सव सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर देश के कुछ भागों में जगह जगह झाँकियाँ लगा कर उत्सव मनाया जाता है।धार्मिक भावना,हर्षोल्लास और उमंग के इस त्यौहार के साथ अनेक बुराइयाँ भी जुड़ गयीं हैं। उनका निराकरण किया जाना चाहिए। निराकरण के उपाय कैसे अपनाए जाएँ , यह मैं स्वयं नहीं जानता। हाँ उन बुराइयों को इंगित अवश्य किए देता हूँ :-

१- अनेक स्थानों पर आयोजन हेतु जबरन चन्दा वसूली।
२- सार्वजनिक स्थानों पर इस प्रकार झाँकी लगा देना कि यातायात अवरुद्ध हो।
३- लाउड स्पीकरों के प्रयोग से आसपास रहने वालों को असुविधा उत्पन्न होना, जिनमें विद्यार्थी और बीमार भी शामिल हैं।
४- झाँकी स्थल पर ऐसे कार्यक्रम आयोजित होना जो धार्मिक आयोजन के अनुरूप न हों।
५- विशालकाय मूर्तियों का विसर्जन, जो विसर्जन स्थल को प्रदूषित करता है।

- इन बुराइयों के निराकरण हेतु शहर के जिम्मेदार नागारिकों द्वारा स्थानीय स्तर पर त्यौहार समीतियाँ बना कर सभी मुहल्लों की समितियों पर नियंत्रण रखा जा सकता है।

दुर्गोत्सव का सबसे उजला पक्ष कन्या पूजन है।यदि हम कन्या को पूज रहे हैं, तो हमारा कर्तव्य है कि अपने दैनिक जीवन में भी हम कन्या को यथोचित सम्मान दें। अन्यथा एक दिन की हमारी यह पूजा कोरा कर्मकांड और दिखावे की धार्मिकता है.

सोमवार, 21 सितंबर 2009

ईद का पर्व मंगलमय हो

'ईद का पर्व मंगलमय हो' - मैंने सतीश सक्सेना के ब्लॉग 'मेरे गीत' में ईद पर लिखे लेख पर यही टिप्पणि दी है। सामान्यतः आशा की जाती है कि लोग ईद की मुबारकबाद दें और नवरात्र तथा विजयादशमी पर शुभकामनाएं भेजें। शुभकामना एक हिन्दी शब्द है और मुबारक उर्दू। इस तरह हम हिन्दी को हिन्दुओं और उर्दू को मुसलामानों के त्योहारों से जोड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं, जो कि सरासर ग़लत है। यह साम्प्रदायिकता का ही एक नमूना है। हम हिन्दीभाषी हैं और अपनी शुभकामनाएं हिन्दी में प्रेषित करें तो कुछ भी ग़लत नहीं करते.यहाँ 'मुबारक'शब्द इस चर्चा का एक बहाना है।यह शब्द तो हिन्दी में घुल मिल गया है।मैं उस मानसिकता का विरोध करना चाहता हूँ जो हिन्दी को हिन्दुओं और उर्दू को मुसलमानों से जोड़ती है.यही बात संस्कृत को ले कर भी है। संस्कृत में कही बात हिन्दुओं से सम्बंधित मान ली जाती है। यहाँ मैं फारसी का जिक्र इस लिए नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि संस्कृत हमारे देश की भाषा है और हमारा सरोकार फारसी के मुकाबले संस्कृत से बहुत अधिक है।

हमें भाषा को भाषा ही रहने देना चाहिए। उसे धर्म से जोड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

भारतीय संस्कृति की शान- तर्पण और क्षमा पर्व

भारतीय संस्कृति के दो पर्व - पितृ पक्ष और क्षमा पर्व मुझे प्रभावित करते हैं। आधुनिक समय में विभिन्न प्रकार के 'डे'(वेलेंटाइन डे, फादर्स डे आदि) मनाने वाले माडर्न लोगों को भी पितृ पक्ष से परहेज नहीं होना चाहिए । यह दिवंगतों की याद में मनाया जाने वाला दिवस ही नहीं पूरा पक्ष है। यह हमारी संस्कृति का एक उजला पक्ष है हमने पूरा एक पखवाड़ा दिवंगतों की याद को समर्पित किया है। आलोचक यह भी कह सकते हैं कि मृत व्यक्ति का श्राद्ध करने की अपेक्षा जीवित माता-पिता की सेवा करना अधिक युक्ति संगत है. मेरा मत है कि जिस प्रकार जीवित व्यक्ति के प्रति अपने पूरे दायित्व निभाने चाहिए उसी प्रकार मृत व्यक्ति को भी समुचित तरीके से याद किया जाना चाहिए. पितृ पक्ष दिवंगतों को याद करने का ही पर्व है.

इस पर्व का सबसे उजला पक्ष 'तर्पण' है, जिसे अनेक लोग केवल पितृ पक्ष में ही नहीं वरन पूरे वर्ष अपने नित्य कर्म में शामिल रखते हैं. तर्पण में श्रद्धांजलि स्वरूप दिया जाने वाला जल मृतात्मा को मिलता है या नहीं यह तर्क और विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन उसमें निहित भावनाएं अवश्य अनुकरणीय हैं –

( मेरे द्वारा दिए गए जल से) नदियाँ. पर्वत, सागर, वनस्पति, औषधि, मनुष्य, राक्षस, पिशाच और पूरे ब्रहमांड में मेरे द्वारा दिया जल ग्रहण करने योग्य सभी जन तृप्त हों.

यह मृतकों को दी जाने वाली अत्यंत विनम्र श्रद्धांजलि है.


इसी प्रकार की विनम्रता प्रर्दशित करने वाला एक अन्य पर्व जैन समाज द्वारा मनाया जाने वाला क्षमा पर्व है -
मेरे द्वारा जाने या अनजाने में किये गए किसी कृत्य से आपको दुःख पहुंचा हो तो उसके लिए मैं हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ.

इन दोनों ही पर्वों की भावनाओं को सभी को आत्मसात करने की जरूरत है. इन पर्वों को अन्य धर्मावलम्बी भारतीय भी अपने तरीके से मना लें तो कोई बुराई नहीं.