प्रसाद जी की यह पंक्ति तो प्रसिद्ध है ही-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
वीरेंद्र पाण्डेय अपने उपन्यास 'सिन्धु की बेटी' में कहते हैं -
औरत को इस हद तक इज्जत बख्शी गयी कि वह खुदी को भूल गयी , अपने आप ही बेइज्ज़त हो खाक में मिलती गयी। ....कहीं उसे नाज़नीन और मलिका कह कर हर काम से अलग किया गया तो कहीं उसे देवी और लक्ष्मी कह कर बुतों की पंगत में बिठा दिया गया।
मनोज वसु के उपन्यास 'सेतुबंध में स्त्री पात्र कहती है-
मैं अगर देवी ही हूँ ,तो महज पत्थर की मूरत ही हूँ - सभी मुझसे डरते हैं,कोई प्यार नहीं करता।
शि. चौगुले का मराठी उपन्यास जिसका हिन्दी अनुवाद 'जमींदार की बेटी' नाम से हुआ है, कहता है-
स्त्रियों का सर जब तक ढंका रहता है तब तक वे स्त्रियाँ रहती हैं,उनकी लाज यदि एक बार भी उड़ जाती है तो वे गनिका जैसी हो जाती हैं।
प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय श्री इला चन्द्र जोशी कहते हैं -
नारी का मन ऐसा रहस्यमय है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में वह समझती है कि वह उससे घृणा करती है, अक्सर उसी को वह अंतस्तल से चाहती है.
श्री जोशी मनोवैज्ञानिक लेखन के लिये जाने जाते रहे हैं। हमें उनका यह कथ्य विचित्र लग सकता है -
एक अवास्थाप्राप्त नारी में (विशेषकर जो माँ भी हो) मातृत्व की सहज अभिव्यक्ति उतनी आकर्षक नहीं होती, जितनी वह एक ऐसी किशोरी कुमारी या नवयुवती में होती है जिसे अभी तक वैवाहिक जीवन का तनिक भी अनुभव न हुआ हो।
मोहनलाल महतो 'वियोगी' के उपन्यास 'महामंत्री' की पंक्तिया हैं
एक नारी क्या चाहती है?वह चाहती है अपने पति पर पूर्ण आधिपत्य। यदि उसका पति ईश्वर के प्रति भी अनुराग प्रकट करता है तो वह नारी ईश्वर की बैरिन बन जाती है..........अगर वह बल से ईश्वर को हरा नहीं सकती तो अपनी दहकती हुई घृणा उन पर उड़ेल देगी और यह इसलिए की उन्होंने उसके पति की स्नेह की धाराओं को अपनी और मोड़ दिया है ।
लियो यूरिस की कृति एक्सोडस के शब्द -
नारी पुरुष की शक्ति है। शक्ति के सामने घुटने टेकने में लाज कैसी ?
कुछ अन्य उद्धरणों पर दृष्टिपात कीजिये-
हम स्त्री की लाल आँखें देख सकते है; पर उसकी सजल आँखें नहीं देख सकते। उस समय हमारा दिल दया का सागर बन जाता है।
पुरुष जब भीतर से टूटने लगता है तो नारी का सहज स्नेह उसे संबल दे पाता है। नारी, चाहे वह माँ हो, बहन हो,पत्नी हो, मित्र हो..
और अंत में कविवर सुमत्रा नंदन पन्त, की पंक्तियाँ -
यदि स्वर्ग कहीं है इस भू पर ,तो वह नारी उर के भीतर
दल पर दल खोल ह्रदय स्तर
जब बिठलाती प्रसन्न हो कर
वह अमर प्रणय के शतदल पर ।
मादकता जग में कहीं अगर ,वह नारी अधरों में सुखकर
क्षण में प्राणों की पीड़ा हर
नवजीवन का दे सकती वर
वह अधरों पर धर मदिराधर।
यदि कहीं नरक है इस भू पर , तो वह भी नारी के अन्दर
वासनावर्त में डाल प्रखर
वह अंध गर्त में चिर-दुस्तर
नर को धकेल सकती सत्वर।