धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए। उसमें निहित भाव क्या हैं - इस पर ध्यान देना जरूरी है। श्रीमद्भागवत पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है-दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याएं हुईं । इनमें से तेरह को उन्होंने धर्म से ब्याह दिया। धर्म की पत्नियों के नाम पर गौर कीजिये: श्रद्धा,मैत्री,दया,शान्ति,तुष्टि,पुष्टि,क्रिया,उन्नति,बुद्धि,मेधा,तितिक्षा,ह्री(लज्जा) और मूर्ति। हम पुराणोंकी बातों को बकवास मानते हुए भले ही दक्ष प्रजापति , उनकी कन्यायों और उन तेरह कन्याओं के पति धर्म के अस्तित्व को नकार दें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि वास्तविक धर्म ( हिन्दू,मुस्लिम.सिख,ईसाई आदि नहीं ) से इन तेरह गुणों की युति सर्वथा उपयुक्त है। अब आगे देखिये धर्म ने इन तेरह पत्नियों से कौन कौन से पुत्र उत्पन्न किये। श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए।
अपने सीमित ज्ञान से मैं तो इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं ,वह धार्मिक कहा जा सकता है, मंदिर में घंटियाँ बजाने वाला,पांच वक्त की नमाज अदा करने वाला या गुरुद्वारे में मत्था टेकने वाला नहीं.