रविवार, 24 मई 2009

कविता

कितना बेचैन था
मैं
मेरे बेटे
तेरे आने की प्रतीक्षा में.

तू आया
मगर मुर्दा.

मैं पहले रोया
औ़र फिर हँसा.

और तेरी माँ
नौ महीने की व्यर्थ साधना का फल पा कर
तड़फती रही
बिस्तर पर.

लेकिन मेरे बेटे
तेरी माँ
खुशनसीब है शायद
मेरी माँ की अपेक्षा.

क्योंकि मैं जिंदा हूँ
अब तक.

शनिवार, 16 मई 2009

कचड़ा दर्शन

आज सुबह के भ्रमण के दौरान मेरा चिंतन कचड़े के एक ढेर के पास जाग उठा.उस स्थान पर नगर नि़गम वालों ने एक ट्रोली रखी थी, जिसमें कचड़ा डाला जाना चाहिए. लेकिन अधिकांश कचड़ा ट्रोली के आसपास बिखरा था, जो हमारी नागरिक चेतना को उजागर कर रहा था. कचड़ा बीनने वाले दो लड़के उस ढेर से अपने मतलब का कचड़ा बीन रहे थे, जिसे बेच कर वे कुछ धन प्राप्त कर सकें.मेरा चिंतन बोल उठा- कचड़ा भी सापेक्ष होता है. जो एक के लिए कचड़ा है वही दूसरे के लिए मूल्यवान हो जाता है. साहित्यकार पत्रकार श्री राजेन्द्र यादव ब्लॉग लेखन को कचड़ा करार देते हैं, लेकिन हम जैसों को ब्लॉग में एक नहीं अनेकों सार्थक चीजें मिल जाती हैं.

सराफा बाजार में मैंने सफाई कर्मियों को घंटों नाली की सफाई करते देखा है. वे इस मनोयोग से अपनी ड्यूटी नहीं करते , बल्कि उस नाली में कुछ सोने के कण ढूंढ रहे होते हैं. भारतीय मतदाता इतना भाग्यशाली तो नहीं कि उसे कचड़े के ढेर में सोना मिल जाए. लेकिन उसने अपना कर्त्तव्य पूरा कर दिया. उसे कचड़े का एक ढेर दिया गया था और कहा गया था कि इसमें जो थोड़ा बहुत काम का कचड़ा दिखे उसे छांट लो. सो उसने कर दिखाया. जय भारत.

रविवार, 10 मई 2009

कवि जो तार सप्तक में नहीं हैं

आज मुझे मेरे छोटे से पुस्तकों के संग्रह के बीच नन्हे कवि कुशाग्र. के नाना श्री भैरव दत्त जोशी, जो इस समय लगभग नब्बे वर्ष के हैं, का एक टंकित कविता संग्रह मिला. खड़ी बाजार, रानीखेत (उत्तराखंड) के निवासी श्री जोशी एक अच्छे चित्रकार भी रहे हैं और उन्हें कुछ पुरस्कार भी मिले हैं, जिनकी पूर्ण जानकारी मेरे पास उपलब्ध नहीं है. बहरहाल यहाँ मैं उनकी कविताओं की बात कर रहा हूँ. यह कविता संग्रह पढ़ कर मुझे लगा कि केवल तार सप्तक और पत्र पत्रिकाओं में छपने वाले, मंच पर कविता पाठ करने वाले और ब्लॉग लिखने वाले ही कवि नहीं होते. कवि और भी हैं जिनमें से एक श्री भैरव दत्त जोशी भी हैं. अफ़सोस यही है कि विभिन्न कारणों से ऐसे कवियों द्वारा रची गयी श्रेष्ठ रचनाओं से अधिकांश पाठक वंचित रह जाते हैं. प्रस्तुत है श्री जोशी की एक कविता जो उन्होंने १९८५ में लिखी थी.


सुबह ने होते ही पहले आकाश को संवारा
और सारा क्षितिज अनुराग से भर दिया.
पर्वतों की चोटियां रक्तिम स्वर्ण हो गयीं
किसी तप्त लालसा से नहीं,
प्यार की पहली लजीली मुस्कराहट से,
जो आशामय दिव्याभा की नवागता किरण थी |

सुबह के होते ही पक्षियों ने स्वागत गीत गाये,
पशुओं ने प्रसन्न नेत्रों से निहारा,
पत्थर सम्मान के लिए जगमगा उठे,
झाड़ियों, वृक्षों तथा अन्यत्र धरती में
हरीतिमा का उल्लास छा गया.
सुगंध बिखराते हुए फूल खिलखिला उठे
अधीर भौंरे तथा तितलियाँ
प्यार के मधुपान को निकल पड़े |

किन्तु इंसान ने, याने प्रबुद्ध मानव जाति ने
सुबह के होने को ललचाई निगाहों से देखा
और निकल पड़े कारोबार के नाम पर
एक दूसरे को ठगने के लिए
अथवा लाठी के बल पर भैंस लाने के लिए
या इस कारोबार शब्द का कोई अन्य अर्थ है
तो मैं नहीं जानता |

मैंने इतना अवश्य देखा
कि सारी लालिमा नष्ट हो गयी.
हरियाली मुरझा गयी.
वातावरण में एक चीखता शोर गूँज उठा
सर्वत्र प्रदूषण की विषाक्त घुटन छा गयी
और शान्ति,सौन्दर्य तथा अनुराग की
वह सुकोमल दिव्याभा,
जो अभी सुशोभित थी
सहसा जाने कहाँ खो गयी |.

बुधवार, 6 मई 2009

सुशासन उर्फ़ अंधेर नगरी चौपट राजा

चुनाव के मौसम में कुछ राजनैतिक दल सुशासन का नारा भी बुलंद करते आए हैं। सुशासन कैसा होता है , दुर्भाग्यवश यह हम आजादी के बाद से अब तक नहीं देख पाये हैं। कामना है कि आने वाली पीढी उसे देख पाये।


सुनते हैं लालूजी के पटना से पलायन के बाद बिहार में सुशासन की थोड़ी बहुत झलक दिखाई देती है। ये सूचना हमें समाचार पात्र और टी वी से मिली। हमने बिहार के सुशासन का अनुमान लगाया है। शायद अब वहाँ मुख्य मंत्री के रिश्तेदारों का दर्जा भगवानके बाद दूसरे से हट कर नीचे आ गया होगा। शायद पटना में अब रात को आठ बजे बाद भी सड़कों में निकलने की हिम्मत की जा सकती होगी।


ऐसे ही सुशासन की कुछ ख़बर हमने समाचार पत्रों में मध्य प्रदेश के बारे में पढी थी। विधान सभा चुनावों के बाद संचार माध्यमों ने हमें बताया था कि वहाँ मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान के सुशासन ने भाजपा को दुबारा सत्ता दिलाई है। आजादी के बाद से ही सुशासन की राह ताकने को मजबूर हमने स्वयं सुशासन के दर्शन करने की ठानी और राजधानी भोपाल पंहुच गए। हमारा मानना है कि भोपाल में सर्वोत्तम दर्शनीय स्थल बड़ा तालाब है। इस तालाब को हम पहले देख चुके थे। इसकी विशालता और बरसात में उठती ऊंची ऊंची लहरों ने हमें समुद्र दर्शन का आनंद दिया था। सो सबसे पहले हमने तालाब देखने की ठानी।


तालाब दर्शन हेतु जाते हुए रास्ते में ही हमें वहाँ के सुशासन के दर्शन हो गए। सड़कें खुदी हुई थीं। पता चला कि पाइप लाइन बिछाने के लिए सड़कें खुदी हुई हैं।यह हाल पिछले २०-२५ दिनों से था। उन सड़कों में जो वाहन चला ले वह सर्कस के मौत के कुएं में वाहन चलाने का आनंद ले सकता था। वाहन के शाकाप , पिस्टन आदि की चिंता इंश्योरेंस वालों पर छोड़ते हुए हम एक चौराहे पर पहुँच गए। हमें लगा सुशासन इसी चौराहे पर है। क्योंकि वहाँ लाल हरी बत्तियां न केवल लगी हुई थीं अपितु काम भी कर रही थीं। यही नहीं वहाँ ट्रेफिक का एक सिपाही भी खडा था। उस चौराहे पर हम भोपाल वासियों के वाहन चलाने की योग्यता के कायल हो गए। बत्तियां क्रमानुसार जल बुझ रही थीं,क्योंकि उनका काम जलना बुझना था और यदि काम सुचारू रूप से हो रहा है तो सुशासन है। वाहन चालाक शायद रंगभेदी नीति के घोर विरोधी थे। वे बत्तियों के रंगों की तनिक भी चिंता न करते हुए ,एक दूसरे से होड़ करते हुए , आधा पौन इंच के फासले से कट मारते हुए वाहन दौड़ का अभ्यास करते प्रतीत होते थे.हमें लगा यदि ओलम्पिक में वाहन दौड़ प्रतियोगिता होती हो तो अभिनव बिंद्रा के बाद कोई भोपाल वासी अपने दम पर देश के लिए स्वर्ण पदक ला सकता है। ट्रेफिक का सिपाही आसपास के घटना क्रम से निर्लिप्त रहते हुए राम राज्य और सुशासन दोनों की ही गवाही दे रहा था। राम राज्य में प्रजा सुखी रहती है और सिपाही ट्रेफिक नियमों की धज्जियाँ उडाने वाली प्रजा की अनदेखी करके उन्हें सुखी बना रहा था। साथ ही ड्यूटी टाइम में ड्यूटी पर मौजूद रहते हुए सुशासन के दर्शन करा रहा था।


हमारे मेजबान ने हमें एक तालाबनुमा पोखर के सामने ले जाते हुए कहा - यह रहा बड़ा तालाब। हमने उन्हें किसी मनोचिकित्सक से मिलने की सलाह देते हुए कहा- भाई इन छोटे तालाबों को देखने की हमें कोई चाह नहीं है, हमें बड़ा तालाब ले चलो। जवाब में उन्होंने हमें नेत्र चिकित्सक से मिलने की सलाह देते हुए आश्वस्त किया कि यही भोपाल की शान बड़ा तालाब है। तालाब की दुर्दशा देख हमें ऐसा धक्का लगा कि हम मेजबान से ह्रदय रोग चिकित्सक का पता पूछने लगे। हमें लगा शायद सुशासन इसी तालाब में समा गया है।


मध्य प्रदेश में स्थानीय शासन द्वारा पानी सप्लाय की भी दयनीय स्थिति है। राजधानी भोपाल में एक दिन छोड़ पानी आता है। अन्य स्थानो,जिनमें क्षिप्रा नदी के किनारे बसा उज्जैन भी शामिल है, में और भी बुरी हालत है। कहीं पुलिस के पहरे में पानी का वितरण होता है तो कहीं पानी के टैंकर को लूटने की घटना सामने आती है। हमने जगह जगह सरे आम मोटर द्वारा सप्लाय लाइन से पानी की चोरी होते हुए देखा, लेकिन सुशासन इसे शायद इस लिए नहीं देख पाता क्योंकि पानी की सप्लाय सुबह होती है और काम के बोझ का मारा सुशासन तब तक जग नहीं पाता होगा।


हमें लगा कि सुशासन को लाने में मतदाता सहयोग नहीं दे रहे हैं। मतदाता यदि अटलजी को भारत को कुछ दिन और चमकाने देते तो अटल जी भारत की नदियों को जोड़ करे सुशासन ले आते और मध्य प्रदेशवासियों को पानी मिल जाया करता। हम समझ गए कि मतदाता ही सुशासन की राह के रोडे हैं।


मध्य प्रदेश ऊर्जा की बचत के मामले में भी सुशासित लगा। वहाँ घंटों बिजली गुल रहती है और इस प्रकार ऊर्जा बचत हेतु अन्य प्रदेशों के लिए एक प्रेरणाश्रोत बन गया है। वहाँ की बिजली बोर्ड ने बिजली चोरी रोकने का एक अनूठा सिद्धांत निकाला है, जिसे सुन बोर्ड के अधिकारियों की प्रतिभा और सुशासन लाने के उनके प्रयासों ने हमें चौंका दिया। शायद सुन के आप भी कम हैरान नहीं होंगे। वे लोग उन लोगों के प्रति कोई कार्रवाई नहीं करते जो बिजली चोरी करते हैं। वे उन क्षेत्रों की बिजली में कटौती करते हैं जिन क्षेत्रों में बिजली चोरी होती है। खुले आम में लाइन में तार डाल बिजली चोरी करने वालों को रोकना वे झंझट का काम समझते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों की दादागिरी से पंगा लेने की अपेक्षा ईमानदारी से बिजली का बिल भरने वालों की बिजली काट देना आसान होता है।


सड़क, बिजली,पानी के सुशासन को देख हम उबरे ही थे कि समाचार पत्र पर नजर पडी - चार माह में ७२ लूट! यह आंकडा भोपाल शहर काम था। पता चला अधिकाँश शिकार लाडली लक्ष्मियाँ ( महिलाएं ) थीं। हमने कहा- आख़िर महिलाएं चेन पहन, हेंड बैग लटका, मोबाईल हाथ में ले दूर दूर जाती क्यों हैं ? क्या जब तालिबान आयेंगे तभी इन पर लगाम लगेगी ? अफ़सोस ! हमें बताया गया- बहुत सारी घटनाएं दूध लेने जाते हुए या कुत्ते को घुमाते हुए घर के आसपास ही हुई थीं और घटनाओं को अंजाम देने वाले अन्य शहरों से आए हुए इंजीनियरिंग की पढाई करने वाले छात्र हैं। हम तुंरत माजरा समझ गये। लोग अपनी औकात जाने बिना लड़कों को इंजीनियरिंग की पढाई के लिए भेज देते है। उनकी फीस, किताबें, रहना,खाना और थोडा बहुत जेब खर्च की व्यवस्था तो वे जैसे जैसे जैसे जैसे तैसे करते हैं लेकिन मंहगे मोबाईल ,bike का फालतू पेट्रोल, शराब - सिगरेट का खर्च भेजने में उनकी नानी याद आ जाती है। युवा भावी इंजिनियर भी अपने माँ बाप की आर्थिक स्थिति का आकलन कर उन पर बोझ न बनते हुए विदेशों की तर्ज पर स्वावलंबी बनने का प्रयास करते दिखाई देते है।


हम निराश हो गए। हम जिस सुशासन के दर्शन करने आए थे वह हमें यहाँ भी नहीं मिला। तभी किसी ने कहा- chintaa मत करो , १६ मई को sushaasan आने वाला है। क्या वाकई ?