यह ज्ञात तथ्य है कि समाचार पत्र और पत्रकारिता ने अनेक नए शब्द दे कर हिन्दी को समृद्ध किया है. पिछले दिनों अजित वडनेरकर जी के 'शब्दों के सफ़र' में संचार माध्यमों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली हिन्दी के बारे में एक पोस्ट आयी थी. मैंने प्रिंट मीडिया द्वारा वर्तमान में हिन्दी की दुर्दशा किये जाने के बारे में उस पोस्ट पर टिप्पणि दी थी, जो संभवतः तकनीकी कारणों से प्रकाशित नहीं हुई. वही बात मैं इस पोस्ट द्वारा व्यक्त कर रहा हूँ. टी वी चेनलों द्वारा हिन्दी की दुर्दशा तो होती ही है.लेकिन समाचार पत्र और पत्रिकाएँ भी इस बात में पीछे नहीं हैं. 'इंडिया टुडे' और 'आउटलुक' के उच्चारण से यह नहीं लगता कि ये हिन्दी की पत्रिकाएँ हैं.संभवतः अपने अंगरेजी संस्करणों की लोकप्रियता और पहचान को बरकरार रखने के लिए इन्होंने हिन्दी में भी इसी नाम को अपनाया. लेकिन इस तरह से हिन्दी का नुक्सान तो कर ही दिया.
यहाँ मैं हिन्दी समाचार पत्र 'दैनिक भास्कर', जो उसमें छपने वाली एक पंक्ति के अनुसार 'भारत का सबसे बड़ा समाचार पत्र समूह' है, द्वारा की जाने वाली हिन्दी की दुर्दशा का वर्णन कर रहा हूँ. इस पत्र में छपने वाले कॉलम इस प्रकार हैं - 'मानसून वॉच' और 'न्यूज इनबॉक्स'. अन्य नमूने - सिटी अलर्ट,सिटी इन्फो, डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क,मार्केट डिजिट्स,वर्ल्ड स्पोर्ट्स, सिटी स्पोर्ट्स,आदि. गनीमत है की सिटी भास्कर , सिटी प्लस,सिटी हॉट और वूमन भास्कर में वे देवनागरी का प्रयोग कर रहे हैं. 'भास्कर classified' और 'DB स्टार' में तो उन्होंने देवनागरी को भी नहीं बख्शा है.
इस समाचार पत्र के 'एजुकशन भास्कर' पृष्ठ में छपे एक समाचार की हिन्दी पर गौर फरमाइए -
कैरियर के साथ वेलफेयर भी
नए कोर्स और कॉम्बिनेशन तो स्टूडेंट्स को लुभा ही रहे हैं, साथ ही सोशियोलोजी जैसे ट्रेडिशनल सब्जेक्ट भी ढेरों नये जॉब ऑप्शन अवेलेबल करवा रहे हैं.
क्लिष्ट हिन्दी का विरोध किया जाता है. सरल हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिए. लेकिन यह कैसी हिन्दी है ?
यह हिंगलिश है, हमारी भाषा को ले डूबेगी.
जवाब देंहटाएंमैं तो समझता हूँ कि इन आयातित शब्दों को यदि हिन्दी में स्वीकार कर लिया जाय तो हिन्दी और समृद्ध होगी। किसी भी भाषा की ग्राह्यता ही उसकी पूँजी होती है। अंग्रेजी भाषा के समृद्धि की यही कहानी है। भाषा तो वह है जो लोगों के समझ में आ जाय चाहे वो किसी भी लिपि में लिखी गयी हो।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
@श्यामलाल सुमन. उल्लेखित शब्द कोट. पैन्ट.मीडिया जैसे शब्द नहीं हैं जिन्हें हिन्दी ने आत्मसात कर लिया है.ऑप्शन और अवेलेबल शब्द जबरदस्ती ठूंसे हुए लगते हैं. जिस व्यक्ति को अंगरेजी का ज्ञान नहीं हो वो इन्हें संभवतः समझें भी नहीं.
जवाब देंहटाएंbahut sahi farmaaya aapne baat sahi hai....hini ka band baaja baj chuka hai... kahi bhi dekhiye aajkal tv kya print me bhii hinglish ka chalan ho chuka hai.......
जवाब देंहटाएंकौन सा समाचार पत्र और कैसी पत्रकारिता!?
जवाब देंहटाएंआजकल सभी व्यव्साय कर रहे हैं। पैसा आना चाहिए कैसे भी आये। इसी चक्कर में यह नये जमाने को लुभाने वाली भाषा (!?) गढ़ी गयी है
जिन वाक्यों में संस्कृत शब्द की अधिकत हो वह कठिन हिन्दी है और जिनके उर्दू शब्द मिले जुले हों वह सरल हिन्दी हो जाती है।
जवाब देंहटाएंजैसे यह काम बड़ा मुश्किल है, कठिन कौन प्रयोग करता है - 90% ब्लॉगस में कठिन शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है! ऐसे और भी प्रयोग हैं।
मुझे लगता है कि अखबारों में मैनपॉवर का भी प्रॉब्लम हैं .
जवाब देंहटाएंयू नो ? लोड बहुत ज्यादा है इन लोगों पर !
हा, हा, हिन्दी दुर्दशा न देखी जाई।
जवाब देंहटाएंहिन्दी मुक्त हो हिन्दी-चौधरियों से भी और हिन्दी को हिकारत से देखने वाले लोगों से भी।
आपका प्रश्न है :- "यह कैसी हिन्दी है ?"
जवाब देंहटाएंउत्तर :- "ये अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़े अमीर लालाओं की हिन्दी है."
अब ज़रा मैं अपनी भी की लूं ?...
जिस हिन्दी की बात आप और मैं करते हैं वह नि:संदेह गरीब लोगों की हिन्दी है. इन बड़े लोगों को 3 बातें निरंतर याद रहती हैं कि ,
1. बेचारे गरीब हिन्दी बालों के पास उनके प्रकाशन खरीदने के पैसे नहीं होते तो काहे उनकी हिन्दी में लिखा जाए.
2. इनकी अंग्रेज़ी गरीब हिन्दी वालों को नहीं आती इसलिए लिपि बदलना ज़रूरी है.
3. ऐसी हिन्दी लिखने से गरीबों को भी देश की अंग्रेजीवाली मुख्यधारा में लाया जा सकेगा.
ऐसी सोच को साधुवाद.
कृपया बतायें कि क्या हिन्दी पढ़े-लिखों की भाषा है?
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सहमत हूँ मैं भी.......... जहां तक संभव हो सरल हिंदी का उपयोग होना चाहिए..........
जवाब देंहटाएंYe samaay ki relempel hai bhai.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आपकी बात से सहमत हूँ मैं भी.
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha aapne/
जवाब देंहटाएंhindi ko usake hi akhbaar khtm karne par tule he/ isake pichhe jo karan he vo yah ki jab akhbaar baazaar ban jaataa he to use isi tarah chalana hota he/ aapne jis akhbaar ka udaharan diya vo BAAZAAR ka pramukh akhbaar bana gayaa he, ese aour bhi kai akhbaar he/ HINDI bechaari, use sirf sisakte rahna he/
ek dam sahi..aapki baaton me wazan hai..aur aisa dikhta bhi hai..this partiality with hindi......
जवाब देंहटाएंaapne bilkul shi kaha hai .hidi bhasha me jo angreji shbd shumar huye hai unka daink vatuo se vasta hai kintu jis hindi ki aap bat kar rhe hai?
जवाब देंहटाएंvo to sasti lokpriyta aur angreji mansikta ki gulami ko drshata hai |
हेम जी ,
जवाब देंहटाएंमैं आप से सहमत हूँ ,वास्तविकता यह है कि इन सब प्रकाशनों में लिए ही ऐसे लोग जा रहे हैं हो कान्वेंटी हिंदी अर्थात रोमनी हिंदी ही जानते हैं ,खांटी हिंदी वाले ज्याद से ज्यादा '' प्रूफ़ रीडर '' मात्र ही रखे जाते होंगे ||
रही बात कबीरा पर दिगंबर जी वाली रचना का यो 'यही' भाव ही तो मुझे बाध्य कार गया था ,उनकी वह रचना थी ही इतनी सुन्दर और भाव पूर्ण की मैं बरबस यह हरक़त कर बैठा | [[ आशा है आप ने भूमिक अवश्य ही पढ़ी होगी ]]
इधर कुछ व्यस्तता के कारण यदि न आ पाऊं तो क्षमा कार दीजियेगा ''काल चक्र '' पर '' ज्योतिष्य -विज्ञानं का अध्ययन '' लेख माला में व्यस्त हूँ आपका अन्यो य कबीरा चाहे जो कहें
बिलकुल सही कहा आपने ये बाज़ारवाद का युग है और बज़र वलों को अपने देश भाशा या संस्कृ्ति से नही बल्कि केवल व्यव्साय से मतलव हैऔर आज की युवा पीढी को कैसे लुभाना है ये वो अच्छी तरह जानते हैं जब हमरे बच्चे अंग्रेजी स्कूलों मे ही पढते है तो हिन्दी कैसे समझेंगे समय रहते ना चेते तो हिन्दी का क्या हाल होगा कोई भी समझ सकता है आभार्
जवाब देंहटाएंChintaneey.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
हेम जी ,
जवाब देंहटाएंमैं आप से सहमत हूँ..
आप की बात एकदम सही है....विचारोत्तेजक और सोचने को मजबूर करता बहुत अच्छा लेख........
पांडे जी, आपके कथन से पूर्णत: सहमति है कि हिन्दी कि इस दुर्दशा के लिए प्रिंट मीडिया सबसे बडा दोषी है। किन्तु इसमें सुधार की भी कोई गुंजाईश नहीं दिखाई देती। सिर्फ इसकी दुर्दशा पर दुखी अवश्य हुआ जा सकता है।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा किया कि इस नमूने को दिखाया. वैसे आजकल नमूनों की कोई कमी नहीं है, वह भी हिन्दी में. पता नहीं आप मानेंगे या नहीं,पर मुझे लगता है कि यह बीमारी उन लोगों को ज़्यादा है जिनकी अंगरेज़ी अधकचरी है. अधजल गगरी छलकत जाए वाली बात है. ऐसे लोग न तो अंगरेज़ी का भला कर सकते हैं न हिन्दी का. उन्हें यह दिखाना है कि वे इंग्लिश भी जानते हैं . इसके उलट अंगरेजी के अनेक विद्वानों ने हिन्दी को काफी सम्रिध किया है.क्या करेंगे,पतई की नाव, बकरी खिवैया!
जवाब देंहटाएंहरिशंकर राढी
"क्लिष्ट हिन्दी का विरोध किया जाता है. सरल हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिए. लेकिन यह कैसी हिन्दी है ? "
जवाब देंहटाएंक्लिष्ट और सरल हिंदी पर मेरे विचार कुछ जुदा हैं, क्लिष्ट वही जिसका प्रयोग हम नहीं करते या हमने किया ही नहीं.
अगर यूँ ही अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन देवनागरी में होता रहा तो शायद हिंदी बचेगी तो सिर्फ उचित या अनुचित क्रिया प्रयोग के लिए मसलन "है", "था" आदि आदि.
उचित विषय उठाया. व्यावसायिकता क्या नहीं कराती, शायद इससे प्रसार संख्या बढ़ रही होगी..............
आखिर मतलब तो पैसे से है, हिंदी भले ही पाताल में जाये........................शायद यही सोंच उन्हें पत्रकारिता में जिन्दा रखे है और ऐसे चहेते पाठक भी तो हैं...........
क्लिष्ट बनाम आसान
बक्सा बोलना आसान था या सूटकेस, पर प्रचलन में सूटकेस आ गया.
गोबर की खाद बोलना आसान था या युरीया, फास्फोरस , पर प्रचलन में क्या आ गया.
शिक्षा बोलना आसान था या एजुकेशन , पर प्रचलन में एजुकेशन ही आ गया.
बड़ाई बोलना आसान थ या कन्ग्राचुलेशन, पर प्रचालन में क्या आ गया.
क्लिष्टता के नाम पर हिंदी के साथ जो नइंसाफी गद्दारों द्वारा की जा रही है उसे समझा जाना चाहिए, बस मुझे इतना ही कहना है.
MAin aapki chinta ko samajh sakti hoon.Hindi kaphi had tak janpunj sanskriti ki chapet me aa chuki hai.Aane wala samay bhi bahut aas nahin jagata.
जवाब देंहटाएंआदरणीय हेम जी,
जवाब देंहटाएंहिन्दी की दुर्दशा पर रोने की बजाय जय हो हो रही है, पूरा बाज़ार भांग पीकर सोया है या अफी़म खाकर धुत्त है।
हे राम, सदबुद्धी कब और कैसे मिलेगी?
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सच कहते हैं आप...
जवाब देंहटाएंनीचे विवेक जी की अपने खास अंदाज़ में की गयी टिप्पणी मजेदार है...
बहुत सुन्दर चर्चा है, मैंने सारी टिप्पणियों को भी पढा अलग अलग तर्क हैं, शयल जी ने कहा की इंग्लिश के शब्दको भी हिंदी के साथ अंगीकार कर लिया जाए | उनका जवाब भी दिया गया, उन्ही शब्दों को शामिल किया जाता है जो दैनिक बोलचाल में आते है जिनसे गरीब तबके के लोग, गाँव के लोग भी परिचित हो जैसे रेल,पैंट,कोट, सिगरेट , इत्यादि | अखबार ने ही हिंदी का बंटाधार नहीं किया अपितु टी.वि में आनेवाले रियल्टी शो भी बराबर के हिस्सेदार हैं ! और पराइवेट रेडियो भी अपनी भागीदारी निभा देते हैं | हिंदी बहुत प्यारी भाषा है इससे प्रेम करो इसकी रक्षा करो |
जवाब देंहटाएंइन हिंदी अख़बारों की ऐसी हरकतों पर प्रभु जोशी का लेख आँखे खोलने वाला है
जवाब देंहटाएंhttp://www.srijangatha.com/2008-09/july/vichar-vithi-prabhu%20joshi1.htm