बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

जागो हिन्दू जागो - कट्टरपंथी बनो

धार्मिक कट्टरपंथ सामान्यतः अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता | लेकिन यदि धर्मग्रंथों की अच्छी बातों का कट्टरता से पालन किया जाय तो इस प्रकार की कट्टरता मानव कल्याण ही करेगी |

हजारों वर्ष पूर्व ही हमारे ऋषि मुनियों ने महसूस कर लिया था कि
समाज में स्त्री शक्ति का सम्मान ही नहीं होना चाहिए अपितु उसे पुरुष की अपेक्षा श्रेष्ठ भी माना जाना चाहिए | सद्यः संपन्न नवरात्र पर्व इसी तथ्य की ओर इंगित करता है | मातृ शक्ति का पूजन और कन्या पूजन की परम्परा संभवतः समाज में नारी को आदर का स्थान देने के लिये ही की गयी थी | इस लिहाज से वे ऋषि मुनि नारी सशक्तीकरण के प्रवर्तक थे |

किन्तु व्यवहार में देखा जाता है कि हिन्दू समाज में ऋषि मुनियों द्वारा प्रतिपादित नारी की श्रेष्ठता का सम्मान नहीं किया जा रहा है | यदि हिन्दू समाज नारी-श्रेष्ठता को हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग मान कर कट्टरता से उसका पालन करे तो यह कट्टरता श्रेयस्कर ही होगी |

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

सरकार की ताकत

मेरा शहर ९२ में दंगों की चपेट में आया थामेरा स्कूटर, जो तब सर्विस सेंटर में था, भी दंगाइयों ने जला डाला था | इस बार २४ सितम्बर से ३०सितम्बर तक भी लोगों में आशंका मौजूद थी |पिछले सबक को याद कर के घरों में राशन, सब्जी आदि का भण्डार जमा किया जाने लगा था | शरारती तत्व अपनी तरह की तैयारी में लगे थे | लेकिन किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं हुई कि जरा भी गड़बड़ी कर सके | यही नहीं इन दिनों शहर में होने वाले आम अपराध भी नहीं सुनाई दिए | क्यों ? क्योंकि मुख्यमंत्री ने कलेक्टरों और पुलिस अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दे दिए थे कि उनके क्षेत्र में होने वाली किसी भी गड़बड़ी के लिये ये अधिकारी जिम्मेदार होंगे और राजनीतिक दबाव की दलील नहीं मानी जायेगी | अर्थात जवाबदेही तय कर दी गयी थी और अधिकार दे दिए गए थे | फलतः पुलिस ने गड़बड़ी करने, करवाने वालों , जिनमें राजनीतिक दलों से सम्बद्ध दादा भी थे,को जिलाबदर करने की कारवाई दो दिन में ही कर डाली | सामान्य दिनों में कोई पुलिस अधिकारी इन लोगों की ओर आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता था |


क्या ऐसी व्यवस्था के लिये ३० सितम्बर जैसे हालात होने जरूरी हैं ? क्या ऐसी जवाबदेही सदा तय नहीं की जा सकती ? की जा सकती है और की जानी चाहिए | दृढ इच्छाशक्ति
वर्तमान कानूनों के भीतर ही सुशासन दे सकती है |











सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

ब्लॉगजगत का एक और घटियापन

२३ सितम्बर से ३० सितम्बर के बीच और उसके तुरंत बाद का भारत एक अपरिपक्व देश की छवि प्रस्तुत करता है |उच्च न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले एक फैसले को शांतिपूर्वक सुनने के लिये हमारे प्रधान मंत्री को जनता से अपील करनी पड़ती है , भारी सुरक्षाबल तैनात करने पड़ते हैं , ३० सितम्बर को शाम तीन बजे से अनेक शहरों में कर्फ्यू का सा माहौल बन जाता है | सभी सम्बंधित पक्ष बार बार कहते हैं कि उन्हें अदालत का फैसला मंजूर होगा ,मानो अदालत का फैसला मान कर वे कोई अहसान कर रहे हों | यह सब अपरिपक्वता की ओर ही इंगित करता है |

अदालत के फैसले के बाद असंतुष्टों को ऊपरी अदालत में जाने का पूरा अधिकार है | लेकिन एक विशेष प्रकार के फैसले की प्रतीक्षा कर रहे लोगों की टिप्पणियाँ अपरिपक्वता को और अधिक उजागर करती हैं | ब्लॉग जगत में तो एक ब्लोगर ने जजों द्वारा दिए फैसले को 'अ-कानूनी' करार दे दिया | मतलब अब उच्च न्यायालय के जजों को क़ानून सीखने के लिये ब्लॉगजगत के दरवाजे खटखटाने पडेंगे ? यह ब्लॉग जगत की अपरिपक्वता (घटियापन)नहीं तो और क्या है ?

वैसे इस मामले में मेरी व्यक्तिगत राय उन हिन्दू-मुसलामानों से मेल खाती है, जो मानते हैं कि अदालत के फैसले के बाद उस स्थान पर राम मंदिर बनाने में मुसलमान सहयोग करें और अन्यत्र मस्जिद बनाने के लिये हिन्दू उससे अधिक सहयोग करें |