गुरुवार, 23 जून 2011

योगासन से बीमार होते हैं ?

मैं पिछले आठ - दस साल से योगासन करता आ रहा हूँ |जब मैंने १९५० से निःशुल्क योगासन सिखाने वाले एक प्रतिष्ठित प्रशिक्षण केंद्र में दाखिला लिया तो मुझसे मेरी बीमारियों के बारे में पूछा गया |तब मैंने उन्हें घुटने में कभी कभार होने वाले मामूली दर्द के बारे में बताना जरूरी नहीं समझा | सप्ताह भर के योगाभ्यास के बाद मेरे घुटने का दर्द काफी बढ़ गया |तब मुझे प्रशिक्षकों द्वारा बताया गया कि घुटने के दर्द वालों के लिये वज्रासन वर्जित है |वज्रासन बंद करने के बाद अब मेरा घुटने का दर्द समाप्त हो चुका है |

मैंने महसूस किया कि लगातार योगासन करने के बाद भी मेरा रक्तचाप कम नहीं होता और डाक्टर दवा की मात्रा बढ़ा देते हैं |आज से लगभग छः-आठ माह पूर्व मैं, बाबा राम देव द्वारा उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिये योगासन सिखाने वाली एक सी डी ले आया | उसको देख कर मुझे लगा कि मैं वर्षों से कपालभाति प्राणायाम गलत तरीके से कर रहा हूँ | बाबा ने उस सी डी में चेतावनी भी दे रखी थी कि गलत तरीके से कपालभाति करने से रक्त चाप और बढ़ सकता है | तब से मैंने बाबा द्वारा बताये गए तरीके से कपालभाति करना शुरू कर दिया | पहले मेरा रक्तचाप १५० / ९० से लेकर १७० / ११० तक पहुँच जाया करता था अब वह ११० /८० से १३० / ८० तक गया है |मेरा मानना है कि रक्तचाप में यह कमी सही तरीके से कपालभाति करने के कारण आयी है |

अपने व्यक्तिगत अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि योगासन द्वारा कमर दर्द और घुटनों के दर्द से छुटकारा पाया जा सकता है और उच्च रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है | लेकिन इसके लिये उचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है अन्यथा योगासन आपको बीमार भी कर सकता है |

शुक्रवार, 27 मई 2011

क्या मंदिर और भागवत कथा चोरी की शिक्षा देते हैं ?

तिवारी जी एक संभ्रांत, सज्जन व्यक्ति हैं | लोगों के सुख दुःख में हमेशा शामिल पाए जाते हैं |आस - पड़ोस और पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्व के प्रति भी सजग हैं | धार्मिक प्रवृति के भी हैं |कुल मिला कर उन्हें एक नेक इंसान की संज्ञा दी जा सकती है | एक बार उन्हें प्रवास पर जाना था | सोचा, स्टेशन जाते हुए बीच में पड़ने वाले साईँ बाबा मंदिर में दर्शन करते हुए चलें |जैसे ही दर्शन करके बाहर निकले तिवारी जी के जूते नदारद थे |तिवारी जी दुविधा में पड़ गए |उनकी गाड़ी छूटने का समय होने जा रहा था |घर वापस जाने का समय भी नहीं था |किसी दुकान से नए जूते खरीदने का समय भी नहीं था | तिवारी जी को जो सूझा वह यह था कि पास में ही पड़े हुए उनकी नाप के किसी अन्य व्यक्ति के जूते पहन लिये जाएँ |तिवारी जी ने यही किया | हालांकि समय मिलते ही उन्होंने नए जूते खरीद लिये और किसी अन्य व्यक्ति के जूतों से छुटकारा पा लिया |

इसी प्रकार एक अन्य घटनाक्रम में तिवारी जी की बेटी, जो एक प्रतिष्ठित पद पर नौकरी करती है, भागवत कथा सुनने गई | जब कथा-भवन से बाहर निकली तो उसकी चप्पल गायब थी |उसको चप्पल खोजते देख एक संभ्रांत बुजुर्ग बोले - 'बेटी ! लगता है चप्पल खो गयी |कोई भी चप्पल पहन लो |' बिटिया को राय पासन्द आयी और बिटिया किसी अन्य की चप्पल पहन कर सीधे मार्केट गयी और वह चप्पल दुकान पर ही छोड़ कर नयी चप्पल खरीद लाई |

क्या तिवारीजी और उनकी बिटिया चोर हैं ?









गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सस्ती पुस्तक , अच्छी पुस्तक

पुस्तकें खरीदने के पीछे एक तर्क उनके मूल्य का अधिक होना दिया जाता है, जिससे मैं पूर्ण सहमत नहीं हूँ | क्योंकि अन्य अनेक मदों में खर्च करते समय हम खर्च की जाने वाली राशि को नजरंदाज कर देते हैं |

वैसे मुझे खुशी है कि हिन्दी जगत में कुछ ऐसी संस्थाएं भी सक्रिय हैं जो सस्ते मूल्य पर पठनीय पुस्तकें उपलब्ध कराती हैं | इस क्रम में गीताप्रेस गोरखपुर का नाम लेने से हमारे धर्मनिरपेक्ष (?) बंधुओं का जायका ख़राब होसकता है , क्योंकि यह प्रकाशन हिन्दू मतावलम्बियों की आवश्यकतानुसार धार्मिक पुस्तकें बहुत सस्ते मूल्य पर लगभग सौ प्रतिशत त्रुटिरहित मुद्रण के साथ उपलब्ध कराता है | किन्तु उन्हें उस संस्था की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए जो मात्र १८ रुपये में गांधीजी की संक्षिप्त आत्म कथा १९२ पृष्ठीय पुस्तक में पढ़ा रही है |

मैं
वाराणसी के सर्व सेवा संघ प्रकाशन को नमन करता हूँ |

शनिवार, 15 जनवरी 2011

काले कौव्वा - गायब कौवा




मकर संक्रांति का त्यौहार मुझे अपने बचपन की याद दिला देता है। मैं ही नहीं, वे सभी कूर्मांचाली जिनका बचपन कूर्मांचल में बीता है "काले कौव्वा" की इस "नराई" (नोस्टालजिया) से बच नहीं सकते। "काले कौव्वा " मनाने वाले मेरे दिन अल्मोड़ा में गुजरे। "काले कौव्वा " पर अपनी अपनी माला पहने हम सभी बच्चे सुबह-सुबह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते थे-
"काले कौव्वा , काले
घुघूती कि माला खाले
ले कौव्वा बडौ, मकें दे सुनो को घडौ
ले कौव्वा पूरी , मकें दे सुनै की छूरी
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................................................
ले कौव्वा बेथुलो
भोल बै आले तेर थोल थेचुलौ"

[काले कौवे, मेरी यह घुघूती (एक चिड़िया) आदि से बनी माला खा ले। कौवे तू ये बड़ा ले जा और बदले में मुझे सोने का घड़ा दे जा। तू पूड़ी ले जा और मुझे बदले में सोने की छुरी दे जा। ]
और अंत में कहा जाता था कौवा ये बथुवा ले जा और कल से आएगा तो तेरे होंठ कुचल देंगे।

इस त्यौहार पर बच्चों में एक विचित्र उत्साह होता था संभवतः कूर्मांचल ही वह एकमात्र स्थान है जहां मकर संक्रांति का यह त्यौहार बच्चों के लिए एक आकर्षण लेकर आता है आटे में गुड़ मिलाकर गूंथने के बाद उसकी विभिन्न आकृतियां (घुघूती, पूरी, तलवार, ढाल, लौंग का फूल, डमरू आदि) बनाई जाती हैं और उन्हें तेल अथवा घी में तलकर उसकी माला पिरोई जाती है इस माला में फल (विशेषतः संतरा), खांड आदि भी पिरोये जाते हैं दूसरे दिन सुबह ये माला पहनकर बच्चे कौवों को बुलाते हैं और उस दिन कौवों की अच्छी दावत होती है

यहाँ प्रवास में भी मैं इस त्यौहार को मनाने का प्रयत्न करता हूँ किन्तु लाख कोशिश के बाद भी कौवा नहीं दिखाई देता। हो सकता है आने वाली पीढ़ी कौवे को भी 'ज़ू' में देखे!