शनिवार, 15 जनवरी 2011

काले कौव्वा - गायब कौवा




मकर संक्रांति का त्यौहार मुझे अपने बचपन की याद दिला देता है। मैं ही नहीं, वे सभी कूर्मांचाली जिनका बचपन कूर्मांचल में बीता है "काले कौव्वा" की इस "नराई" (नोस्टालजिया) से बच नहीं सकते। "काले कौव्वा " मनाने वाले मेरे दिन अल्मोड़ा में गुजरे। "काले कौव्वा " पर अपनी अपनी माला पहने हम सभी बच्चे सुबह-सुबह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते थे-
"काले कौव्वा , काले
घुघूती कि माला खाले
ले कौव्वा बडौ, मकें दे सुनो को घडौ
ले कौव्वा पूरी , मकें दे सुनै की छूरी
................................................
................................................
ले कौव्वा बेथुलो
भोल बै आले तेर थोल थेचुलौ"

[काले कौवे, मेरी यह घुघूती (एक चिड़िया) आदि से बनी माला खा ले। कौवे तू ये बड़ा ले जा और बदले में मुझे सोने का घड़ा दे जा। तू पूड़ी ले जा और मुझे बदले में सोने की छुरी दे जा। ]
और अंत में कहा जाता था कौवा ये बथुवा ले जा और कल से आएगा तो तेरे होंठ कुचल देंगे।

इस त्यौहार पर बच्चों में एक विचित्र उत्साह होता था संभवतः कूर्मांचल ही वह एकमात्र स्थान है जहां मकर संक्रांति का यह त्यौहार बच्चों के लिए एक आकर्षण लेकर आता है आटे में गुड़ मिलाकर गूंथने के बाद उसकी विभिन्न आकृतियां (घुघूती, पूरी, तलवार, ढाल, लौंग का फूल, डमरू आदि) बनाई जाती हैं और उन्हें तेल अथवा घी में तलकर उसकी माला पिरोई जाती है इस माला में फल (विशेषतः संतरा), खांड आदि भी पिरोये जाते हैं दूसरे दिन सुबह ये माला पहनकर बच्चे कौवों को बुलाते हैं और उस दिन कौवों की अच्छी दावत होती है

यहाँ प्रवास में भी मैं इस त्यौहार को मनाने का प्रयत्न करता हूँ किन्तु लाख कोशिश के बाद भी कौवा नहीं दिखाई देता। हो सकता है आने वाली पीढ़ी कौवे को भी 'ज़ू' में देखे!

22 टिप्‍पणियां:

  1. किन्तु लाख कोशिश के बाद भी कौवा नहीं दिखाई देता। हो सकता है आने वाली पीढ़ी कौवे को भी 'ज़ू' में देखे! .......
    aapki aashanka jayaj lagti hai ,
    rochak post hetu abhaar.

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  2. maine pahlee baar iss taras se iss tyohar ko mananne ke bare me padha...sachchi achchha laga...:)

    bachcho ke to maje hote honge...:)

    happy makar sankranti........

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  3. चिड़िया के बदले सोने का घड़ा, वाह रे वाह।

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  4. मकर संक्रांति के दिन काले कौए को आमंत्रित करने का क्या अभिप्राय था . इस मान्यता का आधार क्या था क्यों प्रचलन में आया काले कौए की दावत . अवश्य विश्लेषण कीजियेगा.

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  5. nice post.. ye sab aadhunikaran ka hi natiza hai ki aaj kal sabhi pashu pakshi lupt hote ja rahe hain...
    Please visit my blog.

    Lyrics Mantra
    Banned Area News

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  6. bahut deeno baad aapka yah post padha.........wakai aapki chinta wazib hai....museum me hi rakhna padega ek din...

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  7. अरे जब हम छोटे थे, ओर भारत मे थे तब तो बहुत सारे कोव्वे मिलते थे, कव्वे क्या बहुत से पक्षी मिलते थे, लगता हे सब कही रुठ कर चले गये

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  8. कौवों से जुडी यह कथा रोचक लगी.

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  9. @ गिरधारी खंकरियाल जी
    मैं जानना जरूर चाहता हूँ ,लेकिन मुझे नहीं मालूम कि मकर संक्रांति के इस पर्व पर कौवे को यह महत्त्व क्यों मिला है | मुझे किसी ने बताया है कि अल्मोड़ा डिग्री कालेज में प्रोफ़ेसर रहे श्री अम्बा दत्त पन्त जी ने किसी लेख या पुस्तक में इसका कारण यह बताया है कि जाड़ों में कौवों को भोजन सहज प्राप्त नहीं होता इस लिए प्रतीक रूप में एक दिन कौवों की दावत की जाती है |

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  10. .
    .
    .
    आदरणीय हेम पान्डेय जी,

    काले कौवा पर कौवे हमारे यहाँ भी नहीं दिखे... बड़ा मिस किया उन्हें... न जाने क्या कारण है ?


    ...

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  11. त्यौहार की शुभकामनायें !

    लेकिन हमारे यहाँ तो काफी कौवे हैं !

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  12. गौरैया गयी। कौव्वा भी जा रहा है परदेस। :-(

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. कौवों का आभूषण प्रेम जग विदित है -लगता है सारे हिन्दी ब्लॉग जगत में प्रविष्ट हो चुके हैं नर मादा सहित ! :)

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  15. घर से दूर, यहाँ मकर संक्रांति की तो कोई शुभकामनाएं भी नहीं देता | वहां मैं माँ को हमेशा यही बोलता था की क्या रट लगायी रहती है तेरी, हर दूसरे तीसरे दिन आज संक्रांत , आज मासांत |

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  16. कहते हैं कि कुमाऊ के राजा कल्याण चंद के बेटे का नाम उसकी माँ ने घुघुति रक्खा था| लालच वस जब उसका मंत्री घुघुति को मारने लगा तो कौव्वों ने उसकी जान बचाई थी| उसी उपलक्ष में यह त्यौहार मनाया जाता था और आज भी मनाया जाता है|

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  17. @ Patali-The- Village
    जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

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  18. पाण्डेय जी सादर प्रणाम !
    जहां तक मैं समझता हूँ यदि उपरोक्त (Buransh (Ek Prateek) धारणा के संदर्भ में देखा जाय तो यहाँ पर कौव्वा महज एक प्रतीक भर है उन पशु -पक्षियों का जो सर्दियों से पूर्व पहाड़ों से पलायन कर चुके थे या पलायन कर जाते हैं ,हाँ जहां पर धारणाओं की बात है इनकी सच्चाई का दावा तो नहीं किया जा सकता है हाँ आप चाहें तो इन्हें अवश्य नकार सकते हैं , वैसे भी हमारे उत्तराखंड में कोई भी शुभ कार्य हो या अशुभ कार्य कौव्वों को ही खाशकर आमंत्रित किया जाता है शायद इसलिए भी की कौव्वा साल भर एक संदेशवाहक की भूमिका भी निभाता रहता है ( यह भी एक धारणा ही है ) बहरहाल ब्लॉग पर आने और अपनी बहुमूल्य प्रतिकिर्या व्यक्त करने हेतु , आभार ..........

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  19. यहाँ प्रवास में भी मैं इस त्यौहार को मनाने का प्रयत्न करता हूँ किन्तु लाख कोशिश के बाद भी कौवा नहीं दिखाई देता। हो सकता है आने वाली पीढ़ी कौवे को भी 'ज़ू' में देखे!

    भई हमारे यहाँ तो बहुत हैं कौवे ......

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  20. हेम जी, मेरे यहाँ तो कौए मेरी प्रतीक्षा में होते हैं.मैं बालकनी की तरफ जाऊं भी तो वे आ जाते हैं.नित अंडे की जर्दी जो खिलाती हूँ. पोस्ट भी लिखी है.
    घुघूती बासूती

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  21. पांडेजी मैं आपके ब्लॉग में देरी से आया हूँ और फिर भी टिप्पणी लिखने का विचार आया...

    यद्यपि हमारे माँ-बाप अल्मोड़ा से ही थे, किन्तु बाबूजी ब्रिटिश भारत सरकार में कार्य-रत होने के कारण हमनें अपने को बाल्यकाल से ही दिल्ली में रहते पाया... किन्तु उनके कारण शक्करपारे, 'घुघुते' आदि, हमने भी कव्वों को खिलाये कई मकर संक्रांति के अवसर पर... हमारे बाबूजी का भी कहना था कि जाड़ों में ठण्ड के कारण कव्वे भोजन की कमी के कारण मर जाते थे, इसलिए यह प्रथा आरंभ की गयी... लेकिन अब सोचता हूँ क्यों कव्वों को घुघुते (पक्षी रूप में) अन्य आकारों और बड़ों के अतिरिक्त खिलाये जाते होंगे?

    यह मान्यता है कि जहां तक बुद्धिमत्ता का प्रश्न है, मानव के बाद पक्षियों का नंबर आता है (तोता-मैना तो मानव समान आज भी मानव भाषा में सिखाने पर थोडा बोल लेते हैं, और गरुड़ को विष्णु का वाहन हिन्दूओं द्वारा माना जाता रहा है), और प्राचीन भारत में माना जाता था कि, निराकार नादबिन्दू विष्णु के अष्टम अवतार कृष्ण समान, अथवा शिव के हृदय में विराजमान माँ काली समान काले, कव्वे हमारे पूर्वजों की (निराकार) आत्मा के समाचार हम तक पहुंचाने का कार्य करते हैं, शायद इस कारण भी यह मान्यता परंपरा गत तौर पर अनादिकाल से चली आ रही है...

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