रविवार, 30 मई 2010

धार्मिक कौन ?

धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए। उसमें निहित भाव क्या हैं - इस पर ध्यान देना जरूरी है। श्रीमद्भागवत पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है-दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याएं हुईं । इनमें से तेरह को उन्होंने धर्म से ब्याह दिया। धर्म की पत्नियों के नाम पर गौर कीजिये: श्रद्धा,मैत्री,दया,शान्ति,तुष्टि,पुष्टि,क्रिया,उन्नति,बुद्धि,मेधा,तितिक्षा,ह्री(लज्जा) और मूर्ति। हम पुराणोंकी बातों को बकवास मानते हुए भले ही दक्ष प्रजापति , उनकी कन्यायों और उन तेरह कन्याओं के पति धर्म के अस्तित्व को नकार दें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि वास्तविक धर्म ( हिन्दू,मुस्लिम.सिख,ईसाई आदि नहीं ) से इन तेरह गुणों की युति सर्वथा उपयुक्त है। अब आगे देखिये धर्म ने इन तेरह पत्नियों से कौन कौन से पुत्र उत्पन्न किये। श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए।

अपने सीमित ज्ञान से मैं तो इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं ,वह धार्मिक कहा जा सकता है, मंदिर में घंटियाँ बजाने वाला,पांच वक्त की नमाज अदा करने वाला या गुरुद्वारे में मत्था टेकने वाला नहीं.

गुरुवार, 27 मई 2010

मंगल नाथ और दही भात

दही - भात के लेप से श्रृंगारित मंगलनाथ



मैं ज्योतिष का ज्ञाता नहीं हूँ लेकिन इतना जानता हूँ कि भारतीय ज्योतिष में 'मंगल' को क्रूर ग्रह माना जाता है। मैं नहीं जानता कि जिसका नाम मंगल है वह अमंगल कैसे कर सकता है ? लेकिन ज्योतिष विज्ञान के अनुसार कुण्डली के बारह भावों में से पांच (१,४,७,८और १२) में मंगल का वास अशुभ है।संभावना के सिद्धांत (Theory of Probability) के अनुसार गणित के ज्ञाता बता सकते हैं कि मंगल के अनिष्टकारी होने की क्या संभावना बनती है ।

मंगली लड़के या लडकी की शादी होने में भी मंगल का भय अड़चन डालता है। इसके अतिरिक्त परिवार से मतभेद, आर्थिक हानि, नौकरी या व्यवसाय का स्थिर न रह पाना आदि भी मंगल-दोष के अंतर्गत बताये जाते हैं। इन्हीं दोषों के निराकरण के लिये लोग महाकाल की नगरी उज्जैन जाते हैं। उज्जैन स्थित मंगल नाथ का मंदिर मंगल दोष निवारण का स्थल है। वहाँ पुजारी दही- भात के लेप से मंगल की शान्ति करते हैं।दही भात से क्या मंगल की उग्रता कम हो जाती है ? पता नहीं। इसे आप अपने विवेकानुसार आस्था या अंधविश्वास कह सकते हैं.

रविवार, 23 मई 2010

देवबंद के फतवे में बुराई मत ढूंढिए

पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद के एक फतवे की बड़ी आलोचना हुई जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम महिलाएं पुरुषों के साथ नौकरी न करें। उसके बाद एक अन्य फतवा भी आया था कि यदि किसी स्थिति में ऐसी नौकरी करनी ही पड़े तो पुरुषों से घुलें मिलें नहीं। देवबंद के इन फतवों के शोर में इसी प्रकार की उड़ीसा महिला कल्याण परिषद की सलाह जो सभी धर्म की महिलाओं के लिये है,पर लोगों का ध्यान शायद नहीं गया। इस सलाह में कहा गया है कि महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से अधिक निकटता नहीं बनाएं। ऐसा उड़ीसा महिला कल्याण परिषद् को इस लिये कहना पड़ा क्योंकि एक पुरुष ने अपनी महिला सहकर्मी मित्र का अश्लील एम एम एस बना दिया।


हम भले ही जाति भेद, रंग भेद, वर्ण भेद आदि को न मानें,लिंग भेद को तो मानना ही पडेगा। प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की शारीरिक बनावट में ही नहीं भावना के स्तर पर भी भेद किया है। महिलाएं सामान्यतः पुरुषों की अपेक्षा अधिक सम्वेदनशील और भावुक होती हैं। प्रकृति ने महिला को जननी बना कर एक विशेष दर्जा दिया है। इसी लिये वह शिशु का लालन पालन करने के लिये प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। पुरुष इस मामले में उसकी बराबरी नहीं कर सकता। अतः महिला की प्राथमिकता शिशु का लालन पालन होना चाहिए, जीविकोपार्जन नहीं। जीविकोपार्जन और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी पुरुषों को ही लेनी चाहिए।


लेकिन समस्या यह है कि यदि महिलाएं शिशु के लालन पालन के बहाने चहारदीवारी में ही कैद रहीं तो आवश्यकता पड़ने पर भी वे जीविकोपार्जन हेतु आगे नहीं आ पायेंगी, क्योंकि उन्हें बाहर के माहौल का अभ्यास नहीं होगा। इस लिये महिलाओं का भी पुरुषों की तरह बाहर निकलना जरूरी है ताकि वे उस वातावरण की अभ्यस्त हो सकें,जहां उन्हें पुरुषों के साथ मिल कर काम करना है। अर्थात देवबंद का वह फतवा व्यवहारिक नहीं है, जिसमें औरतों को पुरुषों के साथ कम करने की इजाज़त नहीं दी गयी है ।


अब दूसरे फतवे की बात करते हैं जिसमें कार्यस्थल पर पुरुषों से घुलने मिलने की इजाज़त नहीं दी गयी है। यदि इसे देवबंद की धार्मिक कट्टरता मानी जाए तो उड़ीसा महिला कल्याण आयोग की सलाह को क्या कहेंगे ? जहां तक मेरी जानकारी है कम्पनियां भी पुरुषों और महिलाओं के कार्य में थोड़ा बहुत भेद करती हैं। ज्यादातर ध्यान रखा जाता है कि महिलाओं को रात की ड्यूटी न करनी पड़े और करनी भी पड़े तो उनके घर पहुँचने की पुख्ता व्यवस्था हो सके। अर्थात कम्पनियां भी पुरुषों और स्त्रियों के बीच एक दूरी बना कर चलती हैं।

वास्तव में तमाम स्त्री पुरुष समानता के दावों के बावजूद हमारा समाज अभी तक इस समानता को प्राप्त नहीं कर पाया है।आज भी संसद में पहुँचने के लिये महिलाओं को आरक्षण की जरूरत पड़ती है। अतः जरूरी है कि कार्यस्थल पर महिलायें पुरुषों से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखें.










रविवार, 16 मई 2010

रोजगार चाहिए ? आर. टी. आइ कार्यकर्ता बनें

यह कहना गलत होगा कि सरकार आम जन के लिए कुछ करती नहीं है। समय समय पर शासन द्वारा अनेक जनोपयोगी योजनायें तैयार की गयीं। आजकल समाचार चेनलों पर अन्त्योदय कार्यक्रम का नाम प्राय: सुनने में आ रहा है। अन्त्योदय योजना स्वर्गीय श्री भैरों सिंह शेखावतजी ने सर्वप्रथम राजस्थान में शुरू की थी, जिसका अनुसरण बाद में अनेक राज्यों ने किया। वह योजना कहाँ तक सफल हुई, मैं नहीं जानता। पहली अप्रेल से शिक्षा का अधिकार योजना शुरू की गयी है,इसका हश्र देखना बाकी है।

इसी तरह का एक अन्य अधिकार आम जनता को मिला है- सूचना का अधिकार। सूचना का अधिकार ( आर. टी. आइ. ) एक अच्छा साधन है शासन के कार्यों में पारदर्शिता लाने का। इसके माध्यम से शासकीय भ्रष्टाचार में कमी आनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं। एक ओर समाचार मिल रहे हैं कि अधिकारी सूचना देने में अड़ंगा डालते हैं या टालमटोल करते हैं,वहीं कुछ लोगों ने इसे ब्लेकमेलिंग का जरिया बना लिया है। कुछ लोग , जो अपने को आर.टी.आइ कार्यकर्ता कहते हैं,शासकीय भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा मांगने लगे हैं। हिस्सा न मिलने पर ये सूचना के अधिकार के तहत उनकी पोल खोलने की धमकी देते हैं। घाघ अधिकारी जानते हैं कि पोल खुलने से भी किसी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं, फिर भी ऐसे लोगों का मुंह बंद करना अच्छा है,यह सोचते हुए सामने वाले की औकात का अनुमान लगा कर टुकडा डाल देते हैं।

क्या सूचना के अधिकार की यही उपयोगिता है ?

शनिवार, 8 मई 2010

हाड़ तोड़ प्रायवेट नौकरी या निकम्मी सरकारी ?

कुछ दिनों पहले एक समाचार पढ़ा था - आइ आइ टी और आइ आइ एम से निकलने वाले स्नातक अब मोटा वेतन देने वाली प्राइवेट कंपनियों के मुकाबले पी एस यू को तरजीह देने लगे हैं । समाचार के अनुसार हाल ही में मंदी का दौर देख चुके इन लोगों को मोटी तनख्वाह के मुकाबले नौकरी का स्थायित्व अधिक लुभा रहा है।

दो दिन पूर्व एक सरकारी दफ्तर में कार्यवश जाना हुआ। वहाँ मुझे पंद्रह मिनट रुकना पडा। इस दौरान मैं वहाँ के कुछ कर्माचारियों का वार्तालाप सुनता रहा-
एक मैडम - हमारे पड़ोसी की लड़की प्राइवेट कंपनी में काम करती है। सुबह सात बजे निकल जाती है रात के नौ बजे तक आती है। बड़ी खराब नौकरी है प्राइवेट की।
दूसरी मैडम - ये लोग पैसे तो अच्छे देते हैं, लेकिन खून चूस के रख लेते हैं।
तीसरे बाबू जी - इसके अलावा कभी भी नौकरी से छुट्टी कर सकते हैं। सरकारी नौकरी में जॉब सिक्युरिटी तो है।
पहली मैडम -जो प्राइवेट में नौकरी करता है वह ४० साल की उम्र में ही बीमारियों से घिर जाता है.

मेरे पिताजी ने रिटायरमेंट के बाद १३ साल तक पेंशन ली। उनकी मृत्यु के ३७ साल बाद तक मेरी माता जी ने मृत्युपर्यंत पिताजी की सरकारी सेवा के कारण पेंशन प्राप्त की ।

सारांश यही कि सरकारी नौकरी के अनेक सुख हैं । सरकार अपने सेवकों को सुविधायें दे रही है, यह एक अच्छी बात है,लेकिन सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यदि कोई परमानेंट सरकारी कर्मचारी अपना काम नहीं करता तो उसको नौकरी से निकालना तो दूर सख्त कार्यवाही करना भी आसान नहीं। यदि कोई कर्मचारी किसी कारणवश निलंबित हो जाय तो उसकी बहाली ९९% निश्चित जानिये।

जिन दफ्तरों का कार्यकाल १०-३० से ५-३० तक है वहां कर्मचारी ११ बजे बाद आना शुरू होते हैं। पूरी उपस्थिति १२-१२.३० बजे बाद ही दिखाई देती है। कुछ कर्मचारी तो कुछ दिनों में एक बार केवल हस्ताक्षर करने और वेतन लेने आते हैं। एक कार्यालय में एक महिला कर्मचारी न केवल अत्यधिक विलम्ब से आती थी वरन अपना निर्धारित काम भी पूरा नहीं करती थी। अधिकारी ने अनेक बार मौखिक चेतावनी दी।लेकिन महिला के कान पर जूँ भी नहीं रेंगी । अंत में उसको लिखित चेतावनी दी गयी। जवाब में महिला ने अनुसूचित जाति थाने में रिपोर्ट कर दी - चूंकि मैं अनुसूचित जाति की हूँ और मेरा लड़का इंजीनियरिंग की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है और अधिकारी सवर्ण है ,इस लिये चिढ़ कर मुझे परेशान कर रहा है। हार कर अधिकारी ने महिला का काम अन्य कर्मचारी को सौंप दिया। यह सब मैं सुनी सुनाई बातों या कपोल कल्पना के अनुसार नहीं बल्कि अपनी व्यक्तिगत तथ्यात्मक जानकारी के आधार पर लिख रहा हूँ।

मैं निश्चित नहीं कर पा रहा हूँ कि नयी पीढी को प्रायवेट नौकरी में हाड़ तोड़ मेहनत करने की सलाह दूं या सरकारी नौकरी में जा कर निकम्मा बन जाने की ?

रविवार, 2 मई 2010

नारी तुम कौन हो?

'नारी' पर या 'नारी' को लेकर समय समय पर बहुत कुछ लिखा गया है और लिखा जाता रहा है। लिखने वालों में अधिकांश पुरुष होते हैं। मैं 'नारी' पर स्वयं कुछ न लिख कर केवल यह बताना चाता हूँ कि विभिन्न लोगों ने विभिन्न रूप से नारी पर क्या लिखा है।
प्रसाद जी की यह पंक्ति तो प्रसिद्ध है ही-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो

वीरेंद्र पाण्डेय अपने उपन्यास 'सिन्धु की बेटी' में कहते हैं -
औरत को इस हद तक इज्जत बख्शी गयी कि वह खुदी को भूल गयी , अपने आप ही बेइज्ज़त हो खाक में मिलती गयी। ....कहीं उसे नाज़नीन और मलिका कह कर हर काम से अलग किया गया तो कहीं उसे देवी और लक्ष्मी कह कर बुतों की पंगत में बिठा दिया गया।

मनोज वसु के उपन्यास 'सेतुबंध में स्त्री पात्र कहती है-
मैं अगर देवी ही हूँ ,तो महज पत्थर की मूरत ही हूँ - सभी मुझसे डरते हैं,कोई प्यार नहीं करता।

शि. चौगुले का मराठी उपन्यास जिसका हिन्दी अनुवाद 'जमींदार की बेटी' नाम से हुआ है, कहता है-
स्त्रियों का सर जब तक ढंका रहता है तब तक वे स्त्रियाँ रहती हैं,उनकी लाज यदि एक बार भी उड़ जाती है तो वे गनिका जैसी हो जाती हैं।

प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय श्री इला चन्द्र जोशी कहते हैं -
नारी का मन ऐसा रहस्यमय है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में वह समझती है कि वह उससे घृणा करती है, अक्सर उसी को वह अंतस्तल से चाहती है.

श्री जोशी मनोवैज्ञानिक लेखन के लिये जाने जाते रहे हैं। हमें उनका यह कथ्य विचित्र लग सकता है -
एक अवास्थाप्राप्त नारी में (विशेषकर जो माँ भी हो) मातृत्व की सहज अभिव्यक्ति उतनी आकर्षक नहीं होती, जितनी वह एक ऐसी किशोरी कुमारी या नवयुवती में होती है जिसे अभी तक वैवाहिक जीवन का तनिक भी अनुभव न हुआ हो।

मोहनलाल महतो 'वियोगी' के उपन्यास 'महामंत्री' की पंक्तिया हैं
एक नारी क्या चाहती है?वह चाहती है अपने पति पर पूर्ण आधिपत्य। यदि उसका पति ईश्वर के प्रति भी अनुराग प्रकट करता है तो वह नारी ईश्वर की बैरिन बन जाती है..........अगर वह बल से ईश्वर को हरा नहीं सकती तो अपनी दहकती हुई घृणा उन पर उड़ेल देगी और यह इसलिए की उन्होंने उसके पति की स्नेह की धाराओं को अपनी और मोड़ दिया है ।

लियो यूरिस की कृति एक्सोडस के शब्द -
नारी पुरुष की शक्ति है। शक्ति के सामने घुटने टेकने में लाज कैसी ?

कुछ अन्य उद्धरणों पर दृष्टिपात कीजिये-
हम स्त्री की लाल आँखें देख सकते है; पर उसकी सजल आँखें नहीं देख सकते। उस समय हमारा दिल दया का सागर बन जाता है।

पुरुष जब भीतर से टूटने लगता है तो नारी का सहज स्नेह उसे संबल दे पाता है। नारी, चाहे वह माँ हो, बहन हो,पत्नी हो, मित्र हो..

और अंत में कविवर सुमत्रा नंदन पन्त, की पंक्तियाँ -
यदि स्वर्ग कहीं है इस भू पर ,तो वह नारी उर के भीतर
दल पर दल खोल ह्रदय स्तर
जब बिठलाती प्रसन्न हो कर
वह अमर प्रणय के शतदल पर ।

मादकता जग में कहीं अगर ,वह नारी अधरों में सुखकर
क्षण में प्राणों की पीड़ा हर
नवजीवन का दे सकती वर
वह अधरों पर धर मदिराधर।

यदि कहीं नरक है इस भू पर , तो वह भी नारी के अन्दर
वासनावर्त में डाल प्रखर
वह अंध गर्त में चिर-दुस्तर
नर को धकेल सकती सत्वर।