पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद के एक फतवे की बड़ी आलोचना हुई जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम महिलाएं पुरुषों के साथ नौकरी न करें। उसके बाद एक अन्य फतवा भी आया था कि यदि किसी स्थिति में ऐसी नौकरी करनी ही पड़े तो पुरुषों से घुलें मिलें नहीं। देवबंद के इन फतवों के शोर में इसी प्रकार की उड़ीसा महिला कल्याण परिषद की सलाह जो सभी धर्म की महिलाओं के लिये है,पर लोगों का ध्यान शायद नहीं गया। इस सलाह में कहा गया है कि महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से अधिक निकटता नहीं बनाएं। ऐसा उड़ीसा महिला कल्याण परिषद् को इस लिये कहना पड़ा क्योंकि एक पुरुष ने अपनी महिला सहकर्मी मित्र का अश्लील एम एम एस बना दिया।
हम भले ही जाति भेद, रंग भेद, वर्ण भेद आदि को न मानें,लिंग भेद को तो मानना ही पडेगा। प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की शारीरिक बनावट में ही नहीं भावना के स्तर पर भी भेद किया है। महिलाएं सामान्यतः पुरुषों की अपेक्षा अधिक सम्वेदनशील और भावुक होती हैं। प्रकृति ने महिला को जननी बना कर एक विशेष दर्जा दिया है। इसी लिये वह शिशु का लालन पालन करने के लिये प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। पुरुष इस मामले में उसकी बराबरी नहीं कर सकता। अतः महिला की प्राथमिकता शिशु का लालन पालन होना चाहिए, जीविकोपार्जन नहीं। जीविकोपार्जन और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी पुरुषों को ही लेनी चाहिए।
लेकिन समस्या यह है कि यदि महिलाएं शिशु के लालन पालन के बहाने चहारदीवारी में ही कैद रहीं तो आवश्यकता पड़ने पर भी वे जीविकोपार्जन हेतु आगे नहीं आ पायेंगी, क्योंकि उन्हें बाहर के माहौल का अभ्यास नहीं होगा। इस लिये महिलाओं का भी पुरुषों की तरह बाहर निकलना जरूरी है ताकि वे उस वातावरण की अभ्यस्त हो सकें,जहां उन्हें पुरुषों के साथ मिल कर काम करना है। अर्थात देवबंद का वह फतवा व्यवहारिक नहीं है, जिसमें औरतों को पुरुषों के साथ कम करने की इजाज़त नहीं दी गयी है ।
अब दूसरे फतवे की बात करते हैं जिसमें कार्यस्थल पर पुरुषों से घुलने मिलने की इजाज़त नहीं दी गयी है। यदि इसे देवबंद की धार्मिक कट्टरता मानी जाए तो उड़ीसा महिला कल्याण आयोग की सलाह को क्या कहेंगे ? जहां तक मेरी जानकारी है कम्पनियां भी पुरुषों और महिलाओं के कार्य में थोड़ा बहुत भेद करती हैं। ज्यादातर ध्यान रखा जाता है कि महिलाओं को रात की ड्यूटी न करनी पड़े और करनी भी पड़े तो उनके घर पहुँचने की पुख्ता व्यवस्था हो सके। अर्थात कम्पनियां भी पुरुषों और स्त्रियों के बीच एक दूरी बना कर चलती हैं।
वास्तव में तमाम स्त्री पुरुष समानता के दावों के बावजूद हमारा समाज अभी तक इस समानता को प्राप्त नहीं कर पाया है।आज भी संसद में पहुँचने के लिये महिलाओं को आरक्षण की जरूरत पड़ती है। अतः जरूरी है कि कार्यस्थल पर महिलायें पुरुषों से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखें.
fatawa to islam ka hissa hai muslim mahilao ko bichar karna chahiye. yaha to manawta ko koi sthan nahi hai.
जवाब देंहटाएंक्या दुनिया को चौदह सौ वर्ष पूर्व के नियम कानूनों से चलाना संभव है?
जवाब देंहटाएंपुरुष-नारी में फर्क प्राकृतिक है, एवं कुछ सामाजिक बातों में इसका पालन होना चाहिए ... पर हमें यह भी ध्यान रखना है कि हम अपने घर की महिलाओं को अबला बनाकर न रखें, तथा जीविका और व्यवसाय के हर क्षेत्र में नारी अग्रणी हो ...
जवाब देंहटाएंदुनिया में जहाँ भी नारी आगे बढ़ी है, उस समाज का विकास हुआ है ... और जहाँ भी नारी को बाँध कर रखा गया है ... वो देश आज भी मध्ययुगीन अन्धकार में पड़ा हुआ है ...
फतवे में अच्छाई होने के बाद भी धार्मिक संस्थायें शासन नहीं चला सकतीं...
जवाब देंहटाएंयह आरक्षण, या यह फ़ेशन या यह खुला पन कोई बराबरी नही, वेसे तो ना पुरुष ही नारी की बराबरी कर सकता है, ओर ना ही नारी पुरुष की बराबरी कर सकती है,दोनो मै खुद मै अलग अलग विशेषताये है. गुण है, ओर जब नारी के गुण मर्द मै या मर्द के गुण नारी मै आये तो ..... उसे कया कहा जाता है????? हां दोनो हाथ पकड कर हर दुरी , हर मंजिल पा सकते है, जब दोनो बराबर चले
जवाब देंहटाएंआज के ज़माने में महिला और पुरुष में कोई अंतर नहीं है बल्कि महिलाएं तो पुरुष से हर कदम पर आगे हैं और ऐसा कोई काम नहीं है जिसमें महिलाएं शामिल नहीं होती! पुराने विचार को बदलना चाहिए और महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए!
जवाब देंहटाएंदूरी की बात सही हो सकती है मगर प्रश्न यह उठता है कि हमारे समाज में सारी सलाहें पीड़ितों को ही क्यों दी जाती हैं - इसके बजाय गुंडों, बद्चाल्नों, अपराधियों के विरुद्ध माहौल बनाया जाना चाहिए.
जवाब देंहटाएंfatwo ki baat par aajkal kaun yakeen karta hai
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है ऐसी बाते समाज में व्यवहार करते हुवे अपने आप ही आ जाती हैं ... ऐसी बातों को फ़तवे के रूप में थोपना ग़लत ही है ....
जवाब देंहटाएंsahee kaha....
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