जाति आधारित जनगणना का मुद्दा आजकल चर्चा में है। जातिवादी राजनीति और आरक्षण इस देश का काफी नुक्सान कर चुके हैं । आगे और क्या होगा, यह देखना है। राज्य द्वारा विभिन्न जाति में भेद किये जाने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है ,इसकी एक झलक मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की द्वैमासिक पत्रिका 'अक्षरा' में प्रकाशित दिल्ली की कुहेली भट्टाचार्य की इस लघुकथा से मिलती है :
दो ही जातियों के लोग इस गाँव में रहते हैं.दोनों की ही आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब है। पर्वतीय जनजातीय विभाग की ओर से स्वेटर दिए गए हैं स्कूली बच्चों में बांटने के लिये -पर केवल 'बैगर' जाति के छात्रों को, जबकि जरूरत सभी बच्चों को है। सर्दी के मौसम में सारे छात्र एक दूसरे से चिपक कर बैठे हुए थे और सामने शिक्षक खड़े थे। उनके हाथ में स्वेटरों का भारी बोझ था, पर वे उन्हें बाँट नहीं पा रहे थे। उनके लिये सारे बच्चे एक सामान थे। वे जानते थे- ये बच्चे जिनकी उम्र ७-८ साल है, जिन्हें अपनी जात - पात के बारे में कुछ नहीं पता, जो आपस में दोस्त हैं, एक दूसरे से चिपके बैठे हुए हैं,स्वेटर बंटते ही अलग हो जायेंगे। एक दल स्वेटर वाला, एक बिना स्वेटर वाला। शिक्षक किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे।