'अग्रे किं किं भविष्यसि' यह वाक्य व्याकरणीय दृष्टि से सही है या नहीं , यह मैं नहीं जानता | किन्तु मेरी माताजी ने मुझे यह कहानी इसी शीर्षक के तहत सुनाई थी, इस लिये इसी वाक्य का प्रयोग कर रहा हूँ | प्रायः हम पतन या बुराई को घटित देखते हैं और सोचते हैं कि आगे न जाने और कितना बुरा होगा | कवि की ये पंक्तियाँ भी इसी ओर इंगित करती हैं-
क्या थे , क्या हो गए और क्या होंगे अभी
किन्तु कभी कभी जीवन में इतना बुरा घटित हो चुका होता है कि हम सोचने लगते हैं- अब इससे बुरा और क्या घटित हो सकता है ? किन्तु यह धारणा भी गलत हो सकती है , यह निष्कर्ष इस कथा से निकलता है, जो मुझे बचपन में मेरी माता जी ने सुनाई थी -
एक विद्वान काशी से विद्या प्राप्त कर अपने गृह नगर लौट रहे थे | रास्ते में उन्हें एक (कंकाल की ) खोपड़ी पड़ी मिली | विद्वान को प्राप्त शिक्षा के अनुसार उस खोपड़ी की लेख कहती थी- 'अग्रे किं किं भविष्यसि' | अर्थात आगे न जाने क्या क्या भुगतना है ? विद्वान को आश्चर्य हुआ | भला इस कंकाल को अब क्या भुगतना पड़ सकता है- उन्होंने सोचा | जिज्ञासावश उन्होंने उस खोपड़ी को उठा लिया और घर पहुँचने पर एक संदूक में संभाल कर रख दिया | उन्होंने अपनी पत्नी को हिदायत दे रखी थी कि इस संदूक में उनकी महत्वपूर्ण सामग्री है, अतः उसे कभी न खोलें | विद्वान समय समय पर उस खोपड़ी को देख लिया करते थे और सदा वही वाक्य लिखा पाते - अग्रे किं किं भविष्यसि |
एक बार उन विद्वान की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी ने उस संदूक के रहस्य को समझने की ठान ली | संदूक खोलने पर उस खोपड़ी को देख कर वह स्तब्द्ध रह गयी | उसने अनुमान लगाया कि यह खोपड़ी अवश्य उसकी सौत की है | उसके पति सौत की मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी उसे भुला नहीं पाए हैं और उसकी खोपड़ी को सहेज कर रखा है | पत्नी ने उस खोपड़ी को ओखल में कूट कर चूरा बना दिया और उसे खेत में बिखेर दिया | विद्वान को जब यह बात मालूम पड़ी तो उन्हें संतोष हुआ कि उनके द्वारा प्राप्त विद्या सही है | उन्होंने उस खोपड़ी की लेख को सही पढ़ा था |
तो बन्धु पतन की जिस सीमा को आप पराकाष्ठा समझते हैं, हो सकता है पतनोन्मुखी उससे भी आगे पंहुच जाए | कभी कभी ब्लॉगजगत में भी घटियापन देख कर लगता है, न जाने आगे क्या क्या घटियापन देखना पडेगा !
कभी कभी ब्लॉगजगत में भी घटियापन देख कर लगता है, न जाने आगे क्या क्या घटियापन देखना पडेगा !|
जवाब देंहटाएं-बिल्कुल सही कहा...चिन्ता जायज है.
लोग तो एक ही हैं - ब्लॉग के बाहर या भीतर. बोध कथा पसंद आयी.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहिन्दी की प्रगति से देश की सभी भाषाओं की प्रगति होगी!
भाईसाहब , जिसको मर के भी चैन नहीं है, उसका किया भी क्या जा सकता है, अच्छा यही की घटिया लोगो की तरफ ध्यान दे कर उन्हें और न उकसाया जाए.
जवाब देंहटाएंआपने बोध कथा सुना कर मुसीबत में डाल दिया ! अब मैं हर ब्लागर में विद्वान , पत्नि और सौत के चेहरे खोजने में उलझ गया हूं :)
जवाब देंहटाएंमैंने बोध कथा पढी -खोपड़ी की यह कैसी परिणति -
जवाब देंहटाएंउस वर्ष किसान की उपज बहुत अच्छी हुयी ,खोपड़ी का चूरा उर्वरक जो बन गयी थी ..
इस फल श्रुति से किसान का मन बाग़ बैग हो उठा ,लहलहाती फसलों के देख देख यह वाक्य बार बार कौंध रहा था
की देखिये आगे आगे होता है क्या ?
कहानी तो पूरा कर लिया करें : )
मनुष्य एक जन्मजात समीक्षक है !
@ ali साहब, यह मात्र बोध कथा है - सामान्य घटनाओं के लिए | इसमें किसी पात्र को ढूँढने की कोशिश मत कीजिये |
जवाब देंहटाएं@ Arvind Mishra जी, मैं आपकी लेखनी का प्रशंसक हूँ | इस बोध कथा को आगे बढ़ा कर आपने उसी सशक्त लेखनी का नमूना दिखाया है | साधुवाद !
jaayej chinta...badhiya kahaani...mujhe lagta hai bhavishyasi ke jagah bhavishyanti..grammer ke hisaab se bhi theek ho jaayegaa.
जवाब देंहटाएंआगे-आगे देखते जाओ होता है क्या-क्या ?
जवाब देंहटाएंअच्छी कथा है, ब्लोगरों को सोचना चाहिए कि गन्दगी न फैलाएं |
.....पतन की जिस सीमा को आप पराकाष्ठा समझते हैं, हो सकता है पतनोन्मुखी उससे भी आगे पंहुच जाए .......may be or not may be........
जवाब देंहटाएंbaharhaal bodh katha prernadayak lagi..
....कभी कभी ब्लॉगजगत में भी घटियापन देख कर लगता है, न जाने आगे क्या क्या घटियापन देखना पडेगा !|just wait & watch....
Janmashthmi ki hardik shubh kaamnayen.
.....पतन की जिस सीमा को आप पराकाष्ठा समझते हैं, हो सकता है पतनोन्मुखी उससे भी आगे पंहुच जाए .......may be or not may be........
जवाब देंहटाएंbaharhaal bodh katha prernadayak lagi..
....कभी कभी ब्लॉगजगत में भी घटियापन देख कर लगता है, न जाने आगे क्या क्या घटियापन देखना पडेगा !|just wait & watch....
Janmashthmi ki hardik shubh kaamnayen.
हेम जी ब्लांग जगत के लोग भी तो इस समाज से आये है, फ़िर इन मै फ़र्क क्या, लेकिन जब मुखोटा उअतर जाये तो हमे सचेत होना चाहिये ओर उस व्यक्ति को अलग कर देना चाहिये, ना कि सारे ब्लांग जगत को बुरा कहे या इसे छोड दे, कहानी बहुत शिक्षा लेने वाली है, बहुत अच्छी लगी धन्यवाद, लेकिन याद रखे हमे हमेशा बुरे की उम्मीद नही करनी चाहिये अच्छा भी तो हो सकता है.
जवाब देंहटाएंकथा भी अच्छी लगी और उसपर कमेंट्स भी।
जवाब देंहटाएंआभार स्वीकार करें।
बहुत सी चीजें हमारे नियंत्रण में नहीं हैं। जीवन में ऐसे कई मौक़े आते हैं जब लगता है कि इससे बुरा दिन क्या होगा मगर लंबे अंतराल बाद(चाहे तत्क्षण या इस बीच कोई और बड़ा हादसा न हुआ हो तब भी)हम पिछले प्रकरण को सोचकर अचरज में पड़ जाते हैं कि क्या यह मैं ही था!
जवाब देंहटाएंरोचक..प्रेरक..
जवाब देंहटाएंबढिया लगी ये बोध कथा...
जवाब देंहटाएंरही बात ब्लागजगत की तो जो कल था, वही आज भी है.....और हो न हो आने वाले कल को भी यही सब रहने वाला है........
Aap ka blog dekha...bahut accha laga.
जवाब देंहटाएंसमय बड़ा बलवान है, क्या क्या दिखायेगा?
जवाब देंहटाएंnice article...
जवाब देंहटाएंA Silent Silence : Mout humse maang rahi zindgi..(मौत हमसे मांग रही जिंदगी..)
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कहानी की कथा वस्तु, कथानक, और उद्देश्य सभी सफल हुए . समीक्षा की आवश्यकता ही नहीं रही
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति. इस कथा को सुन चुका हूँ अब अपने सुनायी. लगता है किसी पहाड़ी आपबीती है.
जवाब देंहटाएंब्लॉगजागत की तो पता नही पर कहानी बहुत शिक्षा देने वाली है ....
जवाब देंहटाएंभविष्य को एक हद तक ही नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान को काफी हद तक।
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक प्रसंग है. अब समय का क्या कहना जाने क्या क्या दिखायेगा
जवाब देंहटाएंआपकी हर पोस्ट "गागर में सागर" होती है |
जवाब देंहटाएंआपकी बात बिलकुल सही लगी। इस दृष्टिकोण से भी सोचना जरूरी
जवाब देंहटाएंहैं। बाकी तो बस वक़्त ही बतायेगा।
पतन की जिस सीमा को आप पराकाष्ठा समझते हैं, हो सकता है पतनोन्मुखी उससे भी आगे पंहुच जाए |
जवाब देंहटाएंअग्रे किं किं भविष्यसि
sarthak bodh katha
sahi Baat hai Pandey ji.......
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